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[ २३६ ] ___ अर्थात् निरवद्य करणी के द्वारा मिथ्यात्वी कर्मों को चकचूर कर देता है। यदि कोई उस निरषद्य करणी को अशुद्ध कहता है उसकी श्रद्धा खोटी है । कर्मो' कि गति बड़ी विचित्र है। न्याय मार्ग सामने होते हुए भी प्रबल मोह उदय से मिथ्यात्वी की निरवद्य करणी को भी शुद्ध पराक्रम नहीं कहते है। जब सापद्य करणी से मिथ्यात्वी के पाप कर्म का बन्धन होता है तब निरवद्य करणी से मिथ्यात्वो के कर्म क्यों नहीं कटेंगे, अवश्यमेव कर्म निर्जरा होगी तथा सहचर पुण्य का बंध होगा।
आगमों के अध्ययन करने से ऐसे प्रश्न उपस्थित होते हैं कि जैसे भगवान महावीर के चौदह हजार श्रमणों में धन्य अनगार महा तप और महा कर्मों की निर्जरा करने वाला था वैसे ही मिथ्यात्वी में तप रूप क्रिया करने में तरतमता रहती है। कोई मिथ्यात्वी तप रूप क्रिया के द्वारा सम्यक्त्व को शुभ लेश्या के द्वारा प्राप्त कर, चारित्र ग्रहण उसो भव में सिद्ध-बुद्ध मुक्त हो जाते है, कोई मिण्यायो तरूप क्रिया के द्वारा उसी भव में सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं कर सकते हैं, देव या मनुष्य गति में उत्पन्न होते हैं। फिर वहाँ सम्यक्त्व को प्राप्त करते हैं आदि । आचार्य भिक्षु ने कहा है।
मिथ्याती अनंता मातर दान थी रे, निश्चेइ कीयों परत संसार रे॥
-भिक्षु ग्रंथ रत्नाकर खंड १, पृ० २६०
मिथ्यावी री निर्णय री ढाल २ अर्थात केवल दान के प्रभाव से अनंत मिथ्यात्वी ने संसार अपरिमित किया है। मिथ्याती री करणो री चौपई, ढाल ३ में कहा हैते करणी निरवद करें रे, दानं सीलादिकनिरदोखरे। मास खमणादिक तपसा करे रे लाल, तिणसू कर्मतणों हुवें .
सोखरे ॥६॥
१-इमासिं इंदभूति-पामोक्खाणंचोइसण्हं समण-साहस्सीणं धन्ने - अणगारे महादुक्कर-कारए चेव महाणिज्जरतराए चेव ।
-अनुत्तरोपातिकदशासूत्र तृतीयवर्ग
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