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[ २३८ ] का प्रयोग। बाचार्य भिक्ष ने नव पदार्थ की चौपई, निर्जरा पदार्थ की ढाल २ में कहा है
निर्जरा तणो कामी नहीं, कष्ट करें , विविध प्रकार। तिणरा कर्म अल्प मातर मरें, अकाम निरजरानों एह विचार ॥
-मिक्षुग्रन्थ रत्नाकर खंड १ पृ. ४४ अर्थात् यो निर्जरा का कामी नहीं होता फिर भी अनेक तरह के कष्ट करता है, उसके कर्म अल्पमात्र झहते हैं। यह काम निर्जरा का स्वरूप है। 'मिथ्यात्वी के तप और परीषहजय कृत निर्जरा भी होती है । कहा है
"तपः परीषहजयकृतः कुशलमूलः । तं गुणतोऽनुचिन्तयेत् शुभानुबंधो निरनुबंधो वेति ॥
-तत्त्वा० ६, ७ भाष्य अर्थात तप और परीषह जब कुन निर्जरा कुशलमूल है शुभानुबंधक और 'निरानुबंधक कहा है। मिण्यात्वो अनुदोर्ण कर्मों को आप की शक्ति से उदया • वलि में लाकर क्षय कर सकता है । सत्यार्थसार में इस प्रकार भी निर्जरा को
अविपाका निर्जरा कहा है।' मुनि सूर्यसागरजी ने कहा है-"जो तपस्या द्वारा बिना फल दिये हुए कर्मों की निखरा होती हैं अर्थात तपश्चरण द्वारा कर्मों को फल देने की शक्ति का नाश करके जो निर्जरा होतो है उसको अविपाक निर्जरा कहते हैं। वही आत्मा का हित करने वाली है। इसोसे शनैः शनैः सम्पूर्ण कर्मों का क्षय होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है।"
श्री मज्जयाचार्य ने कहा है-'जे जीव हिंसा रहित कार्य शीतकाल में शोत खमैं, उष्णकाल में सूर्यनी अताफ्ना लेवें, भूख तृषादिक खमें निर्जरा अर्थते सकाम निर्जरा छ । तिणारी केवली आज्ञा देवे । तेहथी पुग्य बंधे । अने बिना (१) अनुदोर्ण तपः शक्रया यत्रोदीर्णोदयावलोम् । प्रवेश्य वेद्यते कम सा भवत्यविपाक जा
-तत्त्वार्थसारः ७, ४ (२) संयम-प्रकाश (पूर्वाद्ध ) चतुर्थ किरण पृष्ठ ६५५. ५६
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