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[ २२१ ] अंगप्रविष्ट श्रुत ( गणधरों के रचे हुए आगम-१२ अंग, जैसे आचारांग, सूयगडांग आदि ) आदि। इस प्रकार अक्षर श्रुत, अनक्षरश्रुतादि के भेद से श्रुत सामायिक के बहुत प्रकार हैं।
सिद्धांत ग्रन्थों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मिथ्यात्वी श्रुत सामायिक के द्वारा अपना आध्यात्मिक विकास कर सकते हैं।
प्रासंगिक रूप से यह कह देना उचित है कि कारक, रोचक और दीपक के भेद से सम्यक्त्व के तीन भेद होते हैं जिसमें दीपक सम्यक्त्व मिथ्यात्वी में हो सकती है। कहा है--
अथवा, कारक-रोचक-दीपकभेदात् xxx त्रिधा सम्यक्त्वं भवति । xxx यत्तु स्वयं तत्त्वश्रद्धानरहित एव मिथ्यादृष्टिः परस्य धर्मकथादिभिस्तत्त्वश्रद्धानं दीपयत्युत्पादयति तत्संबन्धिसम्यक्त्वं दीपकमुच्यते, यथाऽङ्गारमर्दकादिनाम् , इदं सम्यक्त्वहेतुत्वाकु सम्यक्त्वमुच्यते, परमा. र्थतस्तु मिथ्यात्वमेवेति ।
-विशेभा० गा २६७७ टोका अर्थात् कारक, रोचक और दीपक के भेद से' सम्यक्त्व के तीन भेद हैं। जिसमें दीपक सम्यक्त्व-जो मिथ्याहृष्टि स्वयं तत्वश्रद्धान से शुन्य होते हुए दूसरों में उपदेशादि द्वारा तत्त्व के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करता है। दीपक सम्यक्त्व वाले मिथ्यादृष्टि जीव के उपदेश आदि रूप परिणाम द्वारा दूसरों में सम्यक्त्व उत्पन्न होने से उसके परिणाम दूसरों की समकित में कारण रूप हैं । समकित के कारण में कार्य का उपचार होने पर आचार्यों ने इसे समकित कहा है। इसलिये मिथ्यात्वी में दीपक समकिप्त होने के संबंध में शंका का स्थान नहीं है। परमार्थतः वह मिथ्यात्वी ही है।
इस प्रकार मिथ्यात्वी में दोपक सम्यक्त्व के होने से यत्किचित सम्यक्त्व सामायिक भी हो सकती है। तत्त्वतः सम्यक्त्व सामायिक नहीं होती है क्योंकि मिथ्यात्वी ने अभी सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं किया है।
१-धर्म संग्रह अधिकार-२
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