________________
L २३३ J
शातासूत्र म० पर्व में मल्लीनाथ भगवान् ( वत्तंमान अवर्सपिणी काल में हुए १९ व तीर्थकर ) के विवेचन में कहा गया है कि वे अपने पूर्व - महाबल अणगार के भव में अपने संगी साधुओं के साथ विविध प्रकार की तपस्या करते हुए - मायाकपट का प्रश्रय लेकर स्त्री वेद का बन्धन किया । यदि वे तपस्या करते हुए मामा-कपट का प्रश्रय नहीं लेते तो उनके स्त्री वेद का बंधन नहीं होता । उनकी तपस्या की करणो बुरी नहीं थी— बुरी थी— माया-कपट की क्रिया । उस तपस्या के द्वारा उन्होंने बहुत भारी कर्मों के बंधन तोड़े । कर्मों को इतनी बड़ी निर्जरा हुई कि वे अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए फिर वहाँ से च्यवन होकर मल्लनाथ भगवान् स्त्रों रूप में उत्पन्न हुए । होते यदि वे तपस्या में माया-कपट का प्रश्रय तपस्या करते हुए माया-कपट का प्रश्रय संसार में भ्रमण कर सकते हैं । परन्तु उनकी तपस्या को करणी अशुद्ध नहीं है ।
I
स्त्री रूप में वे कदापि उत्पन्न नहीं नहीं लेते । अस्तु
मिथ्यात्वों जीव
लेते हैं तो वे
अन्त काल तक
भ्रमविध्वंसनम् ग्रंथ में (१११४) मिध्यात्वी की शुद्ध क्रिया को आशा के बाहर नहीं माना गया है । मिथ्यात्वी के शुभ योग, ( मन-वचन-कायरूप तीनों प्रकार का शुभयोग ) शुभलेश्या ( तेजो-पद्म-शुक्ल तीनों प्रकार की शुभलेवया ) तथा शुभ अध्यवसाय माने गये हैं । प्रायः बिना शुभयोग - शुभक्रिया के निर्जरा नहीं होती है, (चौदहवें गुणस्थान में शुभयोग के अभाव में भी बहु निर्जरा होती है क्योंकि यहाँ योग का - - चाहे शुभयोग हो, चाहे अशुभयोग सर्वथा निरोध हो जाता है । जैसा कि युग प्रधान आचार्य तुलसी ने जैन सिद्धान्त दीपिका में (४।२६) कहा है
"यत्र शुभयोगस्त्र नियमेन निर्जरा"
अर्थात् वहां शुभयोग की प्रवृत्ति है वहाँ नियम से निजरा होती है । आगम के अनेक स्थल पर मिथ्यात्व के शुभयोग की प्रवृत्ति का उल्लेख मिलता है अतः मिथ्यात्व निर्जरा रूप धर्म की आराधना करने के अधिकारी माने गये हैं । कहा है
३०
"जिन आज्ञा देव जिको, निबंध कारज जान । जिन आज्ञा देव नहीं, ते सावद्य कार्य मान ॥१४॥
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org