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। २२४ ] सुयसंपण्णे, २-सुयसंपण्णे नामं एगे नो सीलसंपण्णे, ३-एगे सीलसंपण्णे वि सूयसंपण्णे वि, ४-नो सीलसंपण्णे नो सुयसंपण्णे।"
तत्थ णं जे से पढमे पुरिसजाए से णं पुरिसे सीलवं असुयवं, उवरए, अविण्णायधम्मे, एसणं गोयमा! मए पुरिसे देसाराहए पन्नत्त xxx।
तत्थर्ण जे से चउत्थे पुरिसजाए से गं पुरिसे असीलवं, असुयवं, अणुवरए, अविण्णायधम्मे, एस णं गोयमा ! मए पुरिसे सव्वविराहए पन्नत्ते ।"
--भगवती श ८। उ १० । सू ४५० अर्थात् चार प्रकार के पुरुष होते हैंयथा१-कोई तोल संपन्न है, परन्तु श्रुत संपन्न नहीं है । २-कोई श्रुत संपन्न है परन्तु शील संपन्न नहीं है। ३ -कोई पुरुष श्रुत संपन्न भी है और शील संपन्न भी है। ४-कोई पुरुष शील संपन्न भी नहीं है और श्रुत संपन्न भी नहीं है।
१-इनमें से प्रथन प्रकार का पुरुष, वह शीलवान है, परन्तु श्रुतवान् नहीं है । वह पाप कर्म से उपरत ( पापादि से निवृत्ति ) है, परन्तु धर्म को नहीं जानता है । इस प्रकार के पुरुष को देश आराधक कहा गया है।
४-जो चोथा पुरुष है, वह शील और श्रुप्त दोनों से रहित है। वह अनुपरत है और धर्म का भी ज्ञाता नहीं है। ऐसे पुरुष को सर्व विराधक कहा है।
भगवान ने मिथ्यात्वी की निरवद्य क्रिया के दृष्टिकोण को लेकर एक को मोक्ष का देश आराधक कहा तथा दूसरे प्रकार का मिथ्यात्वी जो सक्रिया का आचरण नहीं करता, उसे मोक्षमार्ग का सर्वविराधक कहा है। जो मिथ्यात्वी सक्रिया अर्थात् ब्रह्मचर्य का पालन करना, सुपात्रदान देना, अहिंसा का पालन करता, सत्य का आचरण करना, चोरी नहीं करना, मादि)करने में तत्पर रहता है उसे प्रथम पुरुष की श्रेणी में और जो मिथ्यात्वो कुछ भी सक्रिया नहीं करता उसे चतुर्थ पुरुष की श्रेणी में रखा गया है।
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