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अष्टम अध्याय
१ : मिथ्यात्वी - आराधक और विराधक
धागम में कहीं-कहीं मिथ्यावी को संपूर्ण रूप से अनाराधक कहा गया है वह पूर्ण आराधना की दृष्टि की अपेक्षा कहा गया है । रावप्रसेणी सूत्र में सुभदेव को तथा भगवती सूत्र में ईशानेन्द्र तथा चमरेन्द्र को जो आराधक कहा गया है वह सम्यक्त्वो की अपेक्षा आराधक जानना चाहिये, परन्तु अवस की कपेक्षा उन्हें आराधक नहीं कहा जा सकता ।"
धर्म-अधर्म मिश्र पक्ष की अपेक्षा सुर्याभदेव, चमरेन्द्र, ईशानेंद्र की मोर थोड़ा ध्यान दीजिये । उपयु के तीनों देवों में सिद्धान्त के अनुसार चतुर्थ गुणस्थान पावा जाता है। चतुर्थ गुणस्थानचे अधर्म पक्ष होता है । संवरधर्मं को अपेक्षा सुर्याभदेव अनाधक कहे जायेंगे । भगवान ने सम्यक्त्व धर्म की अपेक्षा उन्हें परलोक के आराधक भी कहे हैं ।
अस्तु पूर्ण आराधना की दृष्टि से बाल तपस्वी को उपवाई सूत्र में अनाराघक कहा गया है तथा भगवती सूत्र में ( ०८ उ१०) में देश आराधक कहा है | जिसके त अर्थात् सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन है, परन्तु शोल - आचार नहीं है । ऐसे पुरुष को देश विराधक कहा है । अर्थात् उसने धर्म की आराधना प्रायः की है, देश-किंचित् बाकी है, अतः उसे देश विराधक कहा है । मूल पाठ इसप्रकार है
" तत्थणं जे से दोच्चे पुरिसजाए से णं पुरिसे असीलवं सुयवं अणुवर विणाय धम्मे एस णं गोयमा । मए पुरिसे देसे विराहए पन्नते ।"
-भग० श द उ १० स ४५०
जिस प्रकार पूर्व दिशा में स्कंधरूप धर्मास्तिकाय नहीं है किन्तु धर्मास्तिकाय के देश हैं, प्रदेश हैं । उसी प्रकार बालतपस्वी को संपूर्ण आराधना की दृष्टि
(१) भ्रमविध्वंसनम् अधिकार १
(२) भगवती श । उ १०
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