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[ २२३ ] से अनाराधक कहा गया है तथा देश आराधना की दृष्टि से देश आराधक कहा गया है । बागम में कहा है
इंदाणं भंते! xxx नोधम्मत्थिकाए, धम्मस्थिकायस्स देसे, धम्मत्थिकायस्स पएसा, नोअधम्मत्थिकाए, अधम्मस्थिकायस्स देसे, अधम्मत्थिकायस्स पएसा, नोआगसत्यिकाए, आगासस्थिकायस्स देसे, आगासस्थिकायस्स पएसा।
-भग० २० १० उ १॥ पू ५. ऐन्द्री (पूर्व) दिशा में स्कंध रूप धर्मास्तिकाय नहीं है, किन्तु धर्मास्तिकाय का देश है, धर्मास्तिकाय के प्रदेश है । अधर्मास्तिकाय नहीं है, किन्तु अधर्मास्तिकाय का देश है, अधर्मास्तिकाय के प्रदेश है। आकाशास्तिकाय नहीं है किन्तु आकाशास्तिकाय का देश है आकाशास्तिकाय के प्रदेश है। इस न्याय से प्रथम गुणस्थानवी जीव-मिथ्यात्वी, सक्रिया करते हुए भी सम्पूर्ण भाराधना की दृष्टि से अनाराधक है। परन्तु देश आराधना की दृष्टि से आराधक है।
मिथ्यात्वी को उववाई सूत्र में-सम्यक्त्व और प्रवर की अपेक्षा अनासपक कहा है परन्तु निरवद्य क्रिया की अपेक्षा नहीं।
भगवती सूत्र में शुद्धक्रिया-निर्जराधर्म को अपेक्षा मिथ्यात्वी को देशाराषक तथा उत्तराध्ययन में सुनती कहा है।
१ (क) मिथ्यात्वी की शुद्ध क्रिया और आराधना-विराधना
मिथ्यात्वी निर्जरा रूप निरषद्य करणी की आराधना कर सकता है। मिथ्यात्वी की निर्जरा की करणी आज्ञा के अंतर्गत है या बाहर ।
यदि मिथ्यात्वी की निरवद्य क्रिया - शुद्ध क्रिया सर्वथा प्रकार आशा के बाहर होती तो भगवान ने भगवती सूत्र में (श ८। उ १० ) जहाँ चार पुरुषों का निरूपण किया गया है उसमें मिथ्यात्वी के दो विभाग करके एक पुरुष को देशाराधक तथा दूसरे पुरुष को सर्व पिराधक क्यों कहा ?
"अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि-एवं खलु मए चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, संजहा-१-सीलसंपण्णे नामं एगे नो
१-उववाई सूत्र २-सेन प्रश्नोत्तर
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