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सप्तम अध्याय
१ : मिथ्यावी के संवर नहीं होता मिथ्यात्वी के संवर व्रत न होने के कारण उसके प्रत्याख्यान-दुष्प्रत्याख्यान • कहे हैं । इसी दृष्टिकोण को लेकर उत्तराध्ययन में कहा है
मासे मासे तु जो बालो, कुसग्गेणं तु भुजए। न सो सुयक्खाय धम्मस्स अग्घइ सोलंसि ।।
__-उत्त० अहगा ४४ अर्थात् यदि मिध्यावी महीने महीने की तपस्या करता रहे तथा पारण के दिन सूची की नोक के बराबर अन्नका पारण करे तब भी सम्यक्त्वो के चारित्र धर्मसंवरधर्म की सोलहवीं कला समान नहीं है। कला सोलह ही होती है अतः सोलहवीं कला का कथन किया गया है। अस्तु सोलहवीं कला का कथन रूप है-संवरधर्म के शमांश, सहस्रांश, लक्षांश यावत् असंख्यातवें भाग की भी प्राप्ति नहीं होती' परन्तु निर्जरा धर्म को अपेक्षा उसकी तप का क्रिया सावद्य नहीं हो सकती । मिथ्यात्वी की शुद्ध क्रिया-निर्जराधर्म को जो वीतराग देव की आशा . के बाहर कहता है उसे मिथ्यात्वो जानना चाहिए।
उववाई प्र० २० व सूयगडांग श्रु० २ अ २ में तीन प्रकार के पक्ष कहे गये हैं-धर्मपक्ष, अधर्मपक्ष तथा धर्माधर्मपक्ष । धर्मपक्षमें सर्ववती-श्रवण निग्रन्थों को ग्रहण किया गया है अत: धर्मपक्ष में छठे गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक के श्रमण निग्नन्थों का समावेश हो जाता है। धर्माधर्मपक्षमें पंचम गुणस्थानवी जीवों के जितने जितने त्याग प्रत्याख्यान है उनको अपेक्षा से धर्मपक्ष में व शेष अव्रत की अपेक्षा से अधर्म पक्ष समझना चाहिए। अतः पंचम गुणस्थानवी जीवों का समावेश धर्माधर्म पक्ष में हो जाता है। प्रथम चार गुणस्थानवी जीवों का समावेश अधर्म पक्ष में हो जाता है क्योंकि उनमें से किसी भी गुणस्थान में संघर व्रत की प्राप्ति नहीं होती है।
- १-भ्रमविध्वंसनम् ११७
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