________________
[ १६२ ] दर्शन में श्रद्धा का स्थान सर्वोपरि माना गया है । यथातथ्य वस्तु के श्रद्धान को सम्यगदर्शन' कहते हैं । ऋग्वेद में कहा हैश्रद्ध श्रद्धा पयेह न।
-ऋ० १०१५११५ अर्थात् हे श्रद्धा देवि ! तुम हमें श्रद्धालु बनाओ। महाभारत में कहा है
अश्रद्धा परमं पापं, श्रद्धा पाप प्रमोचनी । जहाति पाप श्रद्धावान्, सर्पा जीर्ण मिथत्वचम् ॥
-महा० पर्व ४२६२६४१५ अर्थात् अश्रद्धा महापाप है। श्रद्धा पाप से मुक्त करती है। जैसे-सर्प जीर्ण त्वचा को छोड़ देता है, वैसे ही श्रद्धालु को पाप छोड़ देता है। मनुस्मृति में कहा है -
सम्यगदर्शनसंपन्नः कर्मभिर्न निबध्यते । दर्शनेन विहीनस्तु संसारे प्रतिपद्यते ॥७४।।
-मनुस्मृति म.. अर्थात् जो सम्पग दर्शन से संपन्न है, वह कर्म का बंधन नहीं करता है इसके विपरीत जो सम्यग दर्शन से विहीन है वह संसार में भटकता-फिरता है। उपनिषद में ब्रह्म का मस्तिष्क ही श्रद्धा है-ऐसा कहा है ।२ वैदिक दर्शन में सम्यगदर्शन व मिथ्यादर्शन को क्रमश: विद्या-अविद्या नाम से अभिहित किया गया है तथा बौद्धदर्शन में मार्ग-अमार्ग नाम से अभिहित किया गया है तथा योग दर्शन में भेद ज्ञान (विवेक ख्याति ) व अभेद ज्ञान की अभिधा से पुकारा गया है । कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा हैदसणमूलो धम्मो उवइट्ठो जिणवरेहि सिरसाणं ।
षटूखंड पाहु दर्शन प्राभृत-गाथा २ १-सम्यग दर्शन, सम्यगइष्टि, सद्बोध, बोषि और सम्यक्त्व --ये सब
एकार्थक हैं। २-सस्य श्रद्ध वशिरः-तैतिरिव ब्रह्मानांदवल्ली अनुवाक ४
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org