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[ १६१ ] "ए अहिंसा धर्म और तप ते पहिला चार गुणठाणा पिण पावै छै।
-भ्रमविध्वंसनम् अधिकार ११ अर्थात् मिथ्यात्वी अहिंसा धर्म और तप धर्म की आराधना कर सकते है परन्तु संयम रूप संवर धर्म की आराधना नहीं कर सकते हैं।
सम्यक्त्वी जीव भी अविशुद्ध लेश्या के प्रवर्तन से मिथ्यात्व भाव को प्राप्त हो सकता है। भगवान ने कहा है
"पुडरिक और कुण्डरिक दो भाई थे। कालांतर में कुण्डरिकने वैराग्य वृत्तिसे संयम ग्रहण किया। संयम का बहुत वर्षों तक पालन किया । किन्तु आहारवृत्ति में गृद्ध हो जाने के कारण वह संयम से भ्रष्ट हो गया । संयम छोड़ दिया। राज्य में गृद्ध होकर सम्यक्त्व को खोकर मिथ्यात्व अवस्था में महा कृष्णलेश्या में मरण प्राप्त होकर सातवीं नरक में उत्पन्न हुआ।""
इस प्रकार संयमी भी अशुभलेश्या के प्रवर्तन से संयम-सम्यक्त्व को खो देते हैं अतः मिथ्यात्वी सिद्धांत के मर्म को समझे, प्रतिपल जागरूक रहे । सक्रिया से----लेश्या विशुद्धि से अवश्यमेव उसका क्रमिक विकास होगा। कर्म के फल को भोगे बिना छुटकारा नहीं होगा। वास्तव में ही सद्संगति का संयोग और भगवान का भजन-ये दो चीजे संसार में दुर्लभ हैं-ऐसा तुलसी दासजी ने भी कहा है
ससंगत हरी भजन, तुलसी दुर्लभ दोय ।
सुत दारा अरु लक्ष्मी, पाप के भी होय ॥ सस्तु मिथ्यात्वी क्रोध-मान-माया-लोभ से अधिक से अधिक छुटकारा पाने का प्रयास करे। सद्संगति और नमस्कार महामन्त्र का जाप करे ।
जैन दर्शन में पदार्थ को परिणामी नित्य माना गया है । मिथ्यात्वी परिणामी. नित्य से ही आध्यात्मिक विकास करता हुआ सम्यक्त्वी होता है। एकांत नित्य और एकांत अनित्य में मिथ्यात्वी-सम्यक्त्वी हो नहीं सकता । भारतीय
१-ज्ञातासूत्र अ १४, सू ३२ से ४१
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