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[ २१७ ] एकत्व भावना और सम्यक्त्व भावनाओं से भगवान् भावित चित्त वाले थे।'
इस प्रकार भगवान महावीर ने दीक्षा ग्रहण के दो वर्ष पूर्व सावध आरम्भ छोड़ा था। प्रत्याख्यान रूप संवर चतुर्थ गुणस्थान में भी नहीं होता है । इससे हम समझ सकते हैं कि मिथ्यात्वी के भी प्रत्याख्यान रूप संवर नहीं होता है परन्तु मोक्षाभिलाषा से अनित्य भावना का चिंतन करना, एकत्व भावना का चिंतन करना, यथाशक्ति ब्रह्मचर्य का पालन करना, आदि निरवध क्रिया से मिथ्यात्वी के भी संवर के बिना सकाम निर्जरा होती है। .
अस्तु मिथ्यात्वी निरवध क्रिया-निर्जरा धर्म की अपेक्षा अणुवती हो सकता है। मिथ्यात्वी भी वैरागी हो सकता है। उसकी निरवध करनी-क्रिया घेराग्य भावनाओं से उत्सन्न हो सकती है।
४ : मिथ्यात्वी और सामायिक , जिसके द्वारा समता की प्राप्ति हो सके उसे सामायिक कहते हैं । सामायिक के चार भेद हैं, यथा--१. सम्यक्त्व सामायिक, २. श्रुवसामायिक, ३. विरति सामायिक तथा ४. विरताविरति सामायिक ।
१-सम्यक्त्व सामायिक-जीवादि तत्त्वों में पथार्थ प्रतीति-यथार्थतत्त्व श्रद्धा को सम्बक्त्व सामायिक कहते हैं।
२-श्रुत सामायिक-श्रुत-ज्ञान विशेष की आराधना करने को श्रुतसामायिक कहते है।
३-विरति सामायिक-सावध वृत्ति के प्रत्याख्यान को विरति सामायिक कहते हैं । पापकारी प्रवृति और अन्तर्जालसा-इन दोनों को सावद्यवृत्ति कहते हैं । इनका त्याग करना विरति सामायिक (संवर ) है । यह सामायिक छठे से चौदहव गुणस्थान तक होती है।
४--विरताविरति सामायिक-यह सामायिक पंचम गुणस्थानवी जीवों के होती है । जो एक देश से विरति होते हैं। इसे देशचारित्र भी कहते हैं।
श्रुत आदि सामायिक के द्वारा संसार रूपी अटवी को पार किया जा सकता है। मिथ्यात्वी में उपर्युक्त चार सामायिक में से एक श्रुत सामायिक होती है। १-एगत्तगए पहियच्चे, से अहिण्णायदंसणे संते ।
---आया० श्रु १३ अ । गा ११॥ उत्तरार्ध २८
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