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[ २१८ ] वे श्रुत सामायिक द्वारा अनंत संसारो से परिमित संसारी हो सकते हैं। श्रुत संपन्नता से पदार्थों का ज्ञान होता है-श्रुतसंपन्न जीव चतुर्गति रूप संसार वन में नहीं भटकता।
बह श्रुत सामायिक-अभवसिद्धिक मिथ्यात्वी और भवसिद्धिक मिथ्यात्वीदोनों में हो सकतो है। कतिपय मिथ्यात्वी श्रुत सामायिक द्वारा रागद्वोष रूपों प्रथि के रहस्य को समझकर उसका छेदन-भेदन कर डालते है । फलस्वरूप वे मिथ्यात्व से निवृत्त होकर सम्यक्त्व सामायिक को भी प्राप्त कर लेते हैं अर्थात् दर्शन संपन्नता से युक्त हो जाते है । आगम में कहा है
दसणसंपण्णयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? दसणसंपण्णयाए णं भवमिच्छत्तछेयणं करेइ ।
-उत्त०२६६. अर्थात् दर्शन संपन्नता से जीव भव-भ्रमण के कारण मिथ्यात्व का नाश कर देता है । अतः मिष्यात भुत-शान का अभ्यास करता रहे । निश्चय नय से सम्यगरष्टि सम्यक्त्व को ग्रहण करते हैं, व्यवहार नय से मिथ्यादृष्टि भी सम्यक्त्व को ग्रहण करते है। आचार्य मलयगिरि ने कहा है
सामायिकं, किं तदित्याह-चतुर्णा-सम्यक्त्वसामायिकश्रुतसामायिकदेशविरतिसामायिकसर्वविरतिसामायिकानाम् ।
-आव. नि गा १०५-टीका अर्थात् सामायिक चार प्रकार की है, यथा-सम्यक्त्व, श्रुत, देशविरति और सर्वविरति सामायिक । अभव्यसिद्धिक मिथ्यात्वी को भी श्रुत लाभ हो सकता है । कहा है
'अभन्यस्यापि कस्यचिद्यथाप्रवृत्तिकरणतो ग्रन्थिमासाद्याहदादिविभूतिसन्दर्शनतः प्रयोजनान्तरतो वा प्रवर्त्तमानस्य श्रुतसामायिकलामो भवति, न शेष सामायिकलाभः।
-आव० नि गा १०७-टीका १-निश्चयनयस्य सम्यग्दृष्टिः सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते, व्यवहारनयस्य तु मिथ्यादृष्टिः सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते ।
-विशेभा० गा २७१६-टीका
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