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[ २१२ ] ४. प्रायोगिक लब्धि-आयुष्य कर्म को बाद देकर शेष सात कर्मों की
स्थिति एक कोटाकोटि सागरोपम से न्यून हो जाना। ५. करणलब्धियथाप्रवृत्ति आदि करणों की प्राप्ति होना ।
उपर्युक्त पांचों लब्धियाँ-निरवद्य अनुष्ठान हैं । इन लब्धियों के द्वारा मिथ्यात्वी के आध्यात्मिक विकास होता है। जब मिथ्यात्वी मिथ्यात्व भाव को छोड़कर सम्यक्त्वी होता है तब लब्धि का अनन्यतम सहयोग रहता है । मिथ्यास्त्री के अब शुभ अनुष्ठान से मिथ्या तिमिर परत क्रमशः हटते जाते हैं, तब अध्यात्म के सन्मुख गति होने लगती हैं। षटखंडागम में आचार्य वीरसेनने कहा है--
अणादिय-मिच्छाइट्ठी वा सादियमिच्छाइट्ठी वा चदुसु वि गदीसु उवसमसम्मत्त घेत्त णविदजीवा ण कालं करेंति xxx चारित्रमोह उवसामगा मदा देवेसु उववज्जति ।
----षट० खंड १,१ । पु० २ पृ. ४३० अर्थात् अनादि मियादृष्टि अथवा सादि मिध्यादृष्टि जीव चारों हो गतियों में उपसम-सम्यक्त्व को ग्रहण कर सकते हैं, किन्तु मरण को प्राप्त नहीं होते हैं। औपनमिक सम्यक्त्व की तरह मिध्यावी शुभ क्रिया से झायिक सम्यक्त्व और क्षायोपरामिक सम्यक्त्र को भी प्राप्त कर सकता है । सम्पक्त्व को प्राप्ति के समय में संज्ञी-पर्याप्त, साकारोपयोगी होना चाहिए। प्रासंगिक रूप से यहाँ यह कह देना उचित होगा कि दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम करने वाले मिथ्यात्वी के मिथ्यात्व कर्म का उदय जानना चाहिए किंतु दर्शन मोह की उपशान्त अवस्था में मिथ्यात्व फर्म का उदय नहीं होता. तदनन्तर उसका उदय भजनीय है।
अर्थात् दर्शन मोह के उपनामक जीव का जब तक अंतर प्रवेश नहीं होता है तबतक उसके मिथ्यात्व का उदय नियम से होता है। उसके बाद उपशमसम्यक्त्व
१-मिच्छतवेदणीयं कम्म उक्सामगस्स बोद्धव्वं । उवसंते आसाणे तेणेपर होइमजियन्यो।
--कषायपाहुडं भाग १२।३०७
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