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[ १६६ ] का देश आराधक भगवती सूत्र के टीकाकार ने भी स्वोकार किया है।" टीकाकार ने सिद्ध किया है कि मिथ्यात्वो सक्रिया कर मोक्षमार्ग की मांशिक आराधना कर सकता है। परन्तु श्रुत की आराधना करने की क्षमता उसमें नहीं है-"श्रुत शब्देन ज्ञानदर्शनयोगृहीत्वात्"२ अर्थात् श्रुत शब्द से ज्ञान और दर्शन दोनों का ग्रहण हो जाता है। संवर धर्म की आराधना नहीं होने से क्या मिथ्यात्वी तप धर्म-निर्जरा धर्म की आराधना नहीं कर सकते कारणे कार्योपचारात् तपोऽपि निर्जराशब्दवाच्यं भवति-जैनसिद्धांतदीपिका ॥१५) कारण में कार्य का उपचार होने से तप को भी निर्जरा कहते हैं। सूत्र में यह कहीं नहीं कहा गया है कि जिसके संवर धर्म नहीं होता-उसके निर्जरा धर्म भी नहीं होता, अस्तु मिथ्यात्वी भी तप और अहिंसा धर्म की आराधना करने के अधिकारी माने गये हैं। ____ आत्म विकास की अभिलाषा से शुद्ध क्रिया करते हैं वहाँ मिथ्याखी के सकाम निर्जरा होती है। जैसा कि युगप्रधान अचार्य तुलसी ने जैनसिद्धांत दीपिका में कहा है।
सहकामेन मोक्षामिलाषेण विधीयमाना निर्जरा-सकामा। तदुपरा अकामा। द्विधाऽपि सम्यक्त्वीनां मिथ्यात्वीनां च ।
-जैन सि० प्रकाश ५ सू १४ __ अर्थात् निर्जरा दो प्रकार की होती है-सकाम और अकाम । मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से की जाने वाली निर्जरा सकाम और इसके अतिरिक्त निर्जरा काम होती है। यह दोनों प्रकार की निर्जरा सम्यक्त्वो और मिथ्यात्वो दोनों के होती है। श्री मज्जयाचार्य ने भ्रमविध्वंसनम् में कहा है
जे अब्रती सम्यादृष्टि रे त्याग बिना शीलादिक पाल्यां व्रत नीपजे नहीं तो मिथ्यात्वी रे व्रत किम निपजे । जिम अव्रती सम्यग(१) देशराहए ति (बालतपस्वी) स्तोकमंशं मोक्षमार्गस्याराषयतीत्यर्थः सम्यगबोधरहितत्वात् क्रियापरत्वात् ।
-भगवती श । उ १०। सू ४५०-टीका (२) भगवती ० ८ । उ० १० । सू ४५० -- टीका
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