________________
[ १८६ ] जिन आज्ञा के अंतर्गत की क्रिया-मिथ्यात्वी करे वा सम्यक्त्वी करे-धर्म होगा।' ___ अर्थात् ज्ञान-हीन (सम्बा ज्ञान हीन) होने के कारण मिथ्यात्वी के संघर व्रत भले ही न हो । संवर व्रत नहीं होने के कारण उसके प्रत्याख्यान-निर्जरा धर्म की अपेक्षा दुष्प्रत्याख्यान नहीं कहे जा सकते । बंधे हुए जो उसके पुराने कर्म हैं, उनकी निर्जरा शुभ परिणाम आदि के द्वारा अवश्यमेव होती है-ऐसा सिद्धांत में कहा गया है ।२ आगे देखिये ३०६ बोल को हुँडी में क्या कहा है।
"तिण त्याग किवा ते ब्रत नहीं नीपजै रे, ते पिण संवर आश्री जाण रे। शुभ जोग वर्ते छै, मिथ्याती तणे रे, तिण रे कर्म निर्जरा, शुद्ध बखांण रे। तिण सू निर्जरा हुवै, सिणसू जिन आगन्यां रे, असुद्ध कहै मूढ गिंवार हो। ठाम ठाम सत्रे जिन कह.यो रे, मिथ्याती री करणी जिन आज्ञा मझार रे।"
–३०६ बोल की हुँडी अर्थात् मिथ्यात्वी के त्याग-प्रत्याख्यान करने पर भी संवर व्रत नहीं होता है परन्तु शुभ योग से निर्जरा होती है। वह कर्म निर्जरा शुद्ध है। स्थान-स्थान पर शागम में मिथ्यात्वी की करणी को जिन आज्ञा में कहा है
समकत विण हाथी रा भव मझे रे, सुसला री दया पाली छे ताहि रे। तिण परत संसार कीयों दया थकी रे, जोवों पेंहला गिनाता मांहिरे ॥५२॥ मिथ्याती निरवद करणी करतां थकां रे, समकत पाय पोहता निरवांण रे ।
१-बिनाज्ञारी चौपई-ढाल २, गा २२, २६। २-भगवती श६ उ ३१
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org