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कहे हैं ।" यदि मिध्यात्वी शीलादिक व्रत को ग्रहण करता है तो निर्जरा को अपेक्षा उसके निर्मल प्रत्याख्यान है ।
आचार्य भिक्षु ने जिनग्या री चौपई, ढाल १ में कहा है :--
ग्यांन दर्शण चारितनें तप, एतो मोख रा मारग च्यार रे यां यारां में जिणजी री आगना, यां बिना नहीं धर्म लिगार रे ॥२॥ श्री जिण धर्म जिन आगना मझे रे ॥
भिक्षु ग्रंथ रत्नाकर (खण्ड १ ) १०२९५ अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप ये मोक्ष के चार मार्ग है । इनके सिवाय धर्म नहीं हैं । यहाँ दर्शन का अर्थ सम्यक्त्व है | चारित्र रूप संवर मिथ्यात्वी के नहीं होता है, तप की आराधना - मिध्यात्वी कर सकते हैं । मिध्यात्वी के संसर्ग से उनका ज्ञान भी अज्ञान कहलाता है अतः सम्यग्ज्ञान नहीं है । अस्तु सम्यग्ज्ञान- सम्यग्दर्शन के न होने के कारण मिध्यात्वी के संवर हो नहीं सकता है । आगे कहा है
मिध्यात छोड़ें समकत आदरयों रे, अबोध छोड़े ने आदरीयों बोध रे । उनमारग छोड़े सनमारग लीयों, तिण सूं आतम होसी स्रोध रे ॥४१॥
- भिक्षु ग्रंथ रत्नाकर (खंड १) १०२६८ अर्थात् जब मिथ्यात्वी, मिध्यात्व को छोड़कर सम्यक्त्व को ग्रहण करता है, अबोध को छोड़कर बोध को प्राप्त होता है तथा कुमार्ग को छोड़कर सम्मार्ग को पकड़ता है उससे उसके आत्मविशुद्धि होती है । जब मिध्यात्वी विशुद्ध लेश्यादि से सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है तब उसके प्रत्याख्यान - सुप्रत्याख्यान ( संवर धर्म की अपेक्षा) हो जाते हैं । संवर धर्म की प्राप्ति से वह चतुर्थ गुणस्थान से भी ऊँचा उठ जाता है । जिन आशा के बाहर की क्रिया में धर्म नहीं हैं चाहे उस क्रिया का आचरण सम्यक्त्व क्यों न करे - पाप कर्म का बन्ध होगा । इसके विपरीत
१ - भ्रमविध्वंसनम् १६
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