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[ १८५ ] अस्तु, मिथ्यात्वी का गुणस्थान प्रथम है अतः मिथ्यात्वी के संवर नहीं होता है ।' कहा है--
जस्स णं सव्वपाणेहिं जाव सव्व सत्तेहिं पच्चक्खायमिति वयमाणस्स णो एवं अभिसमण्णागयं भवइ-इमे जीवा, इमे अजीवा, इमे तसा, इमे थावरा, तस्स णं सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वयमाणस्स णो सुपच्चक्खायं भवइ, दुपच्चक्खायं भवइ ।
-भगवती श ७ उ २। सू० २८ अर्थात् जो पुरुष जीव, अजीव, अस और स्थावर को नहीं जानता है वह यदि सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान करता है तो उस पुरुष का प्रत्याख्यान-सुप्रत्याख्यान नहीं होता, किन्तु दुष्प्रत्याख्यान है।
यहाँ संवर धर्म की अपेक्षा से मिथ्यात्वी के प्रत्याख्यान-दुष्प्रत्याख्यान कहे हैं। वह मिथ्यात्वी संवर धर्म की अपेक्षा तीनकरण तथा सीनयोग से असंयत, अविरत, पापकर्म का अत्यागी एवं अप्रत्याख्यानी, सक्रिय, संवररहित, एकांतदंड और एकांत अज्ञानी है। सिद्धान्त का नियम है कि प्रथम चार गुणस्थान में संवरव्रत की प्राप्ति नहीं होती है। आचार्य भिक्षु ने मिच्याती री निर्णपरी ढाल के दोहे में कहा है
जीव अजीव जाणे नहीं तेहनें, पेंहले गुणठाणे कह यो जिणराय । त्यांरा पचखांण कह्या, तिणरों मूढ न जाणे न्याय ॥१॥ पेंहले गुणठाणे विरत न नीपजें, तिण लेखें कह्या दुपचखांण । पिण निर्जरा लेखें पचखांण निरमला, उत्तम करणी बखांण ॥२॥ पेंहले गुणठाणे करणी करें, तिणरे हुवे , निरजरा धर्म । जो घणों घणों निरवद प्राक्रम करे, तो घणा घणा कटेछे कर्म ३॥ पेंहले गुणठाणे दान दया थकी, कीयों छे परत संसार ॥४॥
-मिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर पृष्ठ २५६
(१) दशवं० अ ४, गा १२ (२) भिक्षु ग्रंथ रत्नाकर खंड १, पृष्ठ २५६ २४
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