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[ १४५ ] . अर्थात मिथ्यात्वियों का बोध भी ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है, किन्तु मिथ्यात्वसहवर्ती होने के कारण वह अज्ञान कहलाता है। जो अज्ञान का अभाव रूप ओदयिक (ज्ञानावरण कर्म के उदय से) अज्ञान होता है, उसका यहाँ उल्लेख नहीं किया गया है। मनःपर्यवज्ञान' और केवल ज्ञान सिर्फ साधुओं के ( केवल ज्ञान सिद्धावस्था में भी है) ही होता है, अत: अशान तीन ही हैं।
मिथ्यात्वी के जातिस्मरण ( मतिज्ञान का एक भेद जो स्मृति को विशेष परिपक्वता से उत्पन्न होता है) ज्ञान तथा विभंग ज्ञान भी शुमलेबादि से उत्पन्न होते हैं । यद्यपि मिथ्यात्वी का ज्ञान-अज्ञान कहलाता है अमितगति आचार्य ने योगसार में कहा है -
मत्यज्ञानश्रताज्ञानविभंगाज्ञान भेदतः। मिथ्याज्ञानं त्रिधेत्येवमष्टधा ज्ञानमुच्यते ॥४॥ मिथ्याज्ञानं मतं तत्र मिथ्यात्वसमवायतः। सम्यगज्ञानं पुनर्जनः सम्यक्त्वसमवायतः ॥ १२ ॥
-योगसार अर्थात् मिथ्यात्व के सम्बन्ध से ज्ञान-मिथ्याज्ञान और सम्यक्त्व के सम्बन्ध से सम्यग्ज्ञान होता है। अज्ञान तीन है-यपा-मतिअज्ञान,, श्रुतज्ञान तथा विभंग अज्ञान । ये तीनों अज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं।
मिष्यात्वी के चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन भी होते हैं जो दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं । षटखंडागम के टीकाकार आचार्य वोरसेम ने कहा है - "मिच्छाणाण मिच्छादसणेहि मिच्छत्त पच्चओ णिदिहो।
-षट् खं ४, २, ८ । सू १०। टीका । पु १२। पृ० २८६ १-मनोद्रव्यपर्यायप्रकाशिमनःपर्यायः -जेन सिद्धांत दीपिका २०१० २-निखिलद्रव्यपर्यायसाक्षात्कारिकेवलम्। -जैन सि• दी. २०१८ ३-बोगसार गाथा १०
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