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[ १६५ ] कि केवल ज्ञान-केवलदर्पन की उत्पत्ति के समय शुभ अध्यवसाय के साथ शुभ परिणाम तथा शुभलेश्या भी होती है।
१६-भगवान महावीर के प्रमुख श्रावक महाशतक को सम्यक्त्व अवस्था में धर्म-जागरणा करते हुए शुभ अध्यवसाय आदि से अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ। महाशसक राजगृह नगर का वासी था।
तए णं तस्स महासतगस्स समणोवासगस्स सुभेणं अज्मरसाणेणं सुभेणं परिणामेणं जाव खओवसमेणं ओहिणाणे समुप्पन्ने।
-उपासकदशांग अ०८ सू० ३. महाशतक श्रावकको शुभ अध्यवसाय ( शुभ परिणाम से, विशुद्धमान लेल्या से, अवधिज्ञानावरणीयकर्म के क्षयोपशम से ) यावत् क्षयोपशम से अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ।
२०-सुग्रीवनगर में बलभद्र नामक राजा था। उसके मृगा नाम की पटरानी थी। उनके 'बलश्री' नाम का पुत्र था, जो 'मृगापुत्र' के नाम से विख्यात पा । एक दिन मृगापुत्र ने एक श्रमण को-जो तप, नियम और संयम को धारण करने वाले. शीलवान और गुणों के भण्डार थे-जाते हए देखा । मृगापुत्र उन मुनि को ध्यान से देखने लगा। उसे विचार हुआ कि मैंने इस प्रकार का रूप पहले देखा है। फलस्वरूप मृगापुत्र को प्रशस्त अध्यवसाय मादि: से जातिस्मरणशान उत्पन्न हुआ।
साहुस्स दरिसणे तस्स, अन्झवसाणम्मि-सोहणे । मोहं गयस्स संतस्स, जाइसरणं समुप्पण्यं ।। देवलोग चुओ संतो, माणुसं भवमागओ। सणिणाण-समुप्पण्णे, जाई सरइ पुराणयं ॥ जाइसरणे समुप्पण्णे, मियापुत्त महड्ढिए । सरइ पोराणियं जाइ, सामण्ण च पुराकयं ॥
-उत्तराध्ययन सूत्र अ० १६ । गा०७ से६ अर्थात् साधु के दर्शन के कारण एवं मोहनीय कर्म को क्षयोपशम होने से तथा शुभ अध्यवसाय से ( आत्मा का सूक्ष्म परिणाम अध्यवसाय कहलाता है।).
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