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जहा सूई खसुत्ता, पडियाण विrtes सहा जीवे खसुत्त, संसारेण विणस्थाई ॥
-उत्तराध्ययन अ २६ | सू ५६ अर्थात् जिस प्रकार डोरे सहित सूई कूड़े कचरे में गिर जाने पर भी गूम नहीं होती वैसे ही श्रुतज्ञानी जीव संसार में नहीं भटकता है । मिध्यात्वी के श्रुत अज्ञान होता ही है । अतः वह श्रुत का अभ्यास करे । दृष्टि को निर्मल बनाने का प्रयास करे ।
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मिथ्यात्व का निरोध सम्यक्त्व से होता है | मिथ्या श्रद्धान जीव करता है, अजीव नहीं कर सकता । मिध्याश्रद्धा जीव का भाव परिणाम है । मिथ्यावी के भी पुण्य का आगमन निरवद्य योग से होता है । आचार्य भिक्षु ने नवपदार्थ की ढाल में कहा है
पुन निरवद जोगां सूं लागे छें आय, ते करणी निरजरा री छे ताय ।
पुन सहज लागे छे तिण सूं जोग छें
आय,
आस्रव मांय ।
अर्थात् पुण्य का आगमन निरवद्य योग से होता है । निरवद्य करनी निर्जरा की हेतु है । पुण्य तो सहज ही आकर लगते हैं इसलिए योग को आश्रव में डाला है । मिथ्यादर्शन की विजय से जीव ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना में तत्पर होता है। कहा है
पिङ दोस- मिच्छादंसण- विजपणं णाण- दंसण- चरित्ता राहणयाए अब्भुट्ठे इ ।
१- तेरहद्वार में दृष्टान्तद्वार
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- आश्रव पदार्थ की ढाल १, ५८
- उत्तराध्ययन अ २६ । सू ७१
अर्थात् राग-द्वेष मिथ्यादर्शन के विजय से जीव सबसे पहले ज्ञान, वर्षान, चारित्र की आराधना के लिए उद्यत होता है । अतः मिध्यात्वी सक्रियाओं के द्वारा अनंतानुबंधीय चतुष्क से निवृत्त होकर - मिध्यादर्शन से
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