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[ १७५ ] इन्द्र हुवों छे तिणकरणी थकी रे, इणकरणी सू हुवों एका अवतार रे ॥३४॥
-भिक्षग्रंथ रत्नाकर भाग १, पृष्ठ २६१ अर्थात् तामलो तापस ने मिथ्यात्व अवस्था में ६० हजार वर्ष तक बेले-बेले को तपस्या की। अंततः वैराग्य भाव से समतारस में रमण करते हुए संथारा पच्चक्खा । तब उसको विचलित करने के लिए चमरचंचा राजधानी से देव-देवी आये । सोलह प्रकार के नाटक दिखलाये और कहा कि हमारे इन्द्र का च्यवनउद्वर्तन हो गया है, हम अनाथ हो गये हैं आप निदान कीजिये जिससे हमारे इन्द्र हों । ऐसा कहकर देव-देवी चले गये। किंतु तामली तापस ने निदान नहीं किया। मिथ्यात्वी अवस्था में बहुत से कर्मों की निर्जरा की; फलस्वरूप ईशानेन्द्र हुआ। वहाँ से च्यवकर महाविदेह क्षेत्र में मनुष्य होगा, साधुत्व को अंगीकार कर सिद्ध-बुद्ध मुक्त होगा।
निष्कर्ष यह निकला की तामली तापस के भव में मिथ्याती अवस्था में सद्क्रियाओं से संसार को घटाया, फलस्वरूप ईशानेन्द्र हुआ -एकाभवतारी हुआ।
यद्यपि मिथ्यात्वो तेजो-पदम-शुक्ल्लेश्या में तिथंच आयुष्य का भी बंधन करते हैं, देवायु तथा मनुष्य आयुष्य का भी । वह तियंच आयुष्य पुण्य रूप प्रकृति विशेष है। कहा है
तेउलेस्सा णं भंते ! जीवा अकिरियावाई किं णेरइयाउयं-पुच्छा। गोयमा ! णो णेरइयाउयं पकरेंति, मणुस्साउयं पि पकरेंति, तिरिक्खजोणियाउयं पि पकरेंति, देवाउयं पि पकरेंति । एवं अण्णाणियवाई वि, वेणइयवाई वि । जहा तेउलेस्सा एवं पम्हलेस्सा वि सुक्कलेस्सा वि णायव्वा।
-भगवतीसूत्र श ३० । उ १।प्र १६ अर्थात् तेजोलेशी अक्रियावादी, विनयवादी, अज्ञानवादी (जो नियमतः मिष्याष्टि होते हैं) तियंच-मनुष्य-देवायु का बंधन करते हैं। इसी प्रकार तियंच में-संशो तिर्यश्च पंचेन्द्रिय में उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार पद्मलेशी-शुक्ललेशी जोव के संबंध में जानना चाहिये। अस्तु मिन्मात्वी शुभ लेपया में नरकगति को बाद देकर अवशेष तीन गति के आयुष्य का बंधन करते है।
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