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[ १५० ] से कितं मइअन्नाणे ? मइअन्नाणे चउठिवहे पन्नत्ते, संजहाओग्गहो, ईहा, अवाओ, धारणा।
--भगश ८। उ २।प्र १०० मतिअज्ञान (मति ज्ञान की तरह) चार प्रकार का है-यथा-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा।
तथा श्रुतज्ञान के स्थान पर श्रुतयज्ञान का व्यवहार हुआ है तथा अवधिज्ञान के स्थान पर विभंगज्ञान का व्यवहार हुआ है। सब मिथ्यात्वी को विभंगज्ञान नहीं होता है। संज्ञी मिथ्यात्वी को ही विभंगशान हो सकता है तथा शेष दो अज्ञानसंज्ञी-असंही दोनों को होते हैं। विभंगज्ञान में परस्पर तारतम्य रहता है अतः मिथ्यात्वी का परस्पर विभंगज्ञान एक समान नहीं होता है भगवती सूत्र में विभंग ज्ञान के अनेक प्रकारों का कथन हैं
विभंगणाणे अणेगविहे पन्नत्ते, तंजहा-गामसंठिए, णयरसंठिए जाव सण्णिवेससंठिए, दीवसंठिए, समुद्दसंठिए, वाससंठिए, वासहरसंठिए, पचयसंठिए, रुक्खसंठिए xxx णाणा संठाणसंठिए पन्नत्त
-भग० श ८। उ २॥ सू १०३ अर्थात विभंग ज्ञान अनेक प्रकार का कहा गया है। यथा-ग्राम संस्थित अर्थात् ग्राम के प्राकार, नगर संस्थित अर्थात नगर के आकार यावत सनिवेश संस्थित, द्वीपसंस्थित, समुद्र संस्थित, वर्ष संस्थित (भरवादि क्षेत्र के आकार ) वर्षधरसंस्थित (क्षेत्र की मर्यादा करने वाले पर्वतों के आकार ), सामान्य पर्वताकार, वृक्ष के आकार, स्तूप के आकार, घोड़े के आकार, हाथी के आकार, मनुष्य के आकार, किन्नर के आकार, किंपुरुष के आकार, महोरग के आकार, गंधर्व के आकार, वृषभ के आकार, पशु के आकार, पशष अर्थात दो खुर वाले एक प्रकार के जंगलो के आकार, विहग अर्थात् पक्षी के आकार और बानर के आकार, इस प्रकार विभंग ज्ञान, नाना संस्थान संस्थित कहा गया है।
कतिपय संज्ञो तियंच पंचेन्द्रिय जीव मिथ्यात्व-भाव को छोड़कर श्रावक के व्रतों को भी ग्रहण करते हैं। पंचम गुणस्थानवर्ती संज्ञी तिथंच पंचेन्द्रिय जीव.
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