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। १५६. ] अर्थात् मेषकुमार को अपने पूर्वभब में विशुद्धलेश्या, शुभ अध्यवसाय, शुभपरिणाम एवं सदावरणीय ( मतिज्ञानावरणीय ) कर्मों के क्षयोपशम से ईहा, ऊपोह, मार्गणा, गवेषणा करते हुए जातिस्मरण (संज्ञीज्ञान) ज्ञान उत्पन्न हुआ।
1-मेघ अणगार की अवस्था में ( सम्यग दृष्टि की अवस्था में )
तएणं तस्स मेहस्स अणगाररस समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एवमट्ठे सोच्चा निसम्म सुभेहिं परिणामेहिं पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं लेस्साहिं विसुज्ममाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापूहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स सन्निपुग्वे जाइसरणे समुप्पण्णे।
ज्ञाता० अ०१ सू १६० अर्थात् भगवान महावीर के अंतवासी शिष्य मेघ ( अणगार ) को विशुद्ध लेश्या, शुभ परिणाम तथा प्रशस्त अध्यवसाय से एवं सदावरणीय कर्मों के क्षयो. पशम से ईहा, ऊपोहः मागंणा, गवेषणा करते हुए जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ।
४-केवली आदि के पास से धर्मप्रतिपादक वचन सुनकर सम्यगदर्शनादि प्राप्त जीव को सम्यक्त्व अवस्था में अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ :
तस्स (सोच्चा ) णं अट्ठमं अट्ठमेणं अणिक्खित्तणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणस्स पगइमहयाए तहेव जाव ( पगइउवसंतयाए, पगइपवणुकोह-माण-मायालोभयाए, मिउमद्दवसंपण्णाए, अल्लीणयाए, विणीययाए, अण्णया कयावि सुभेण अज्मवसाणेणं, सुभेणं परिणामेणं, लेस्साहिं विसुज्ममाणीहि-विसुज्ममाणीहि तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहा-अपोह-मग्गणगवेसणं करेमाणस्स ओहिणाणे समुपज्जइ।
-भग० श०है। उ०५५. अर्थात् केक्ली यावत केवलिपाक्षिक के पास से धर्मप्रतिपादक वचन सुनकर सम्यगदर्शनादि प्राप्त जीव को निरंतर तेले-तेले की तपस्या द्वारा आत्मा को भावित करते हुए प्रकृति की भद्रता आदि गुणों से-किसी दिन शुभ अध्यवसाय शुभ परिणाम, विशुद्ध लेश्या से एवं सदावरणीय कर्म ( अवधिज्ञानावरणीयकर्म)
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