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तप णं तरस गयसुकुमालस्स अणगाररस तं उज्जलं जाव दुरहियासं वेयणं अहियासेमाणस्स सुभेणं परिणामेणं पसत्थवसाणं तदावर णिज्जाणं क्रम्माणं खएणं कम्मरयविकरणकरं अपुव्व करणं अणुष्पविट्ठस्स अनंते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुणे केवलवरणाणदंसणे समुदपण्णे ।
- अंत० वर्ग ३ | अ ८। सू६२
अर्थात् घोर वेदना को समभावपूर्वक सहन करते हुए गजसुकुमाल अनगार ने शुभपरिणाम और शुभ अध्यवसायों से तथा सदावरणीय कर्मों के नाश से कर्म विनाशक अपूर्वकरण में प्रवेश किया; जिससे उनको अनंत अनुत्तर, निर्व्याघात निरावरण, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हुआ। मुनि गजसुकुमाल ने उसी रात्रि में सर्व कर्मो को अनंत कर सिद्ध, बुद्ध यावत् मुक्त हुए ।
१३ - श्रमणोपासक नंदमणियार का जीव मिध्यात्व भाव को प्राप्त होकर अपनी नंदा पुष्करणी में मेढ़क रूप से उत्पन्न हुआ। वहाँ मेढ़क ने बारम्बार बहुत से व्यक्तियों से सुना कि नंदमणियार धम्य है जिसने इस नंदा पुष्करणी को निर्मित किया । ईहा अपोह - मार्गणा - गवेषणा करते हुए उस नंदमणियार के जीव को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ । जैसा कि कहा है-
तए णं तस्स दद्दुरस्य तं अभिक्खर्ण-अभिक्खणं बहुजणस्स अंतिए एमट्ठ सोच्चा निसम्म इमेयारूवे अमत्थिए चितए मण्णोगए संकपे समुपजत्था - कहिं मन्ने मए इमेवारूवे सद्दे निसंतपुव्वे त्ति कट्टु सुभेणं परिणामेणं पसस्थेणं अमवसाणेणं लेस्साहि विसुजजमाणीहिं तयावरणिङजाणं कम्माणं खओवस्रमेणं ईहापूरमग्गण - गवेसणं करेमाणस्स सष्णिपुव्वे जाईसरणे समुप्पण्णे, पुव्वजाइ सम्मं समागच्छइ ।
नायाधम्मकहाओ श्रु १ अ १३ । सू ३५
अर्थात् नंदा पुष्करणी में स्थित उस मेढक ने बहुत व्यक्तियों से सुना कि इस नम्दा पुष्करणों को नम्दमणियार ने बनाया था।
ईहा-अपोह मार्गणा
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