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[ १५१ ] असंख्यात हैं । वे श्रावकत्व का पालन कर देवगति में उत्पन्न होते हैं । सिद्धांत ग्रन्थों के अध्ययन से मालूम हुआ कि कतिपय मिथ्यात्वी संज्ञी तियंच को ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के कारण, विशुद्धमान लेश्या से जाति स्मरण ज्ञान अथवा विभंग अज्ञान समुत्पन्न होता है जिसके कारण वे अपने पूर्व भवों को देखते हैं फलस्वरूप मिथ्यात्व गाव को छोड़कर-सम्यक्त्व को प्राप्त होते हैं तथा अणुव्रत नियमों को भी ग्रहण कर लेते हैं। फलतः वे वैमानिक देवों में उत्पन्न
इस प्रकार मिथ्यात्वी संज्ञो तिथंच भी अपना आध्यात्मिक विकास कर सकते हैं। वे भो मोक्षमार्ग की देश आराधना के अधिकारी हैं। तथा जो सम्यक्त्व को प्राप्त कर अणुव्रत नियमों को ग्रहणकर, उनका विधिवत् पालन करते हैं वे मोक्षमार्ग के देश विराधक हैं । अर्थात उन्होंने मोक्षमार्ग को अधिकांश आराधना की है । वे उत्कृष्ट नियमों का पालन करने वाले संज्ञो तियंच पंचेन्द्रिय सहस्रारदेव (आठवां देवलोक) लोक में उत्पन्न हो सकते हैं। युगप्रधान आचार्य तुलसी ने कहा है
मतिश्रुत विभंगास्त्वज्ञानमपि ॥२०॥ टीका -१विभंगोऽवधि स्थानीयः। तन्मिथ्यात्विनाम् ॥२१॥
-जैन सिद्धान्त दीपिका प्र२ अर्थात् मति, श्रुत और विभंग ये तीन अज्ञान भी है। अवधि ज्ञान के स्थान में विभंग अज्ञान का उल्लेख किया गया है। ये तीनों अज्ञान मिध्यात्वियों के होते हैं । यद्यपि सम्यगमिध्यादृष्टि में भी ये तीनों बज्ञान होते हैं क्योंकि उनके भी संपूर्ण पदार्थों पर पूर्ण रूप से सही श्रद्धा नहीं है। अतः अज्ञान का व्यवहार होता है। १-विविधा भंगाः संति यस्मिन् इति विभंगाः।
जैन सि० दी. पृ. ३८ २-कासार्थे नञ् समासः कुत्सितत्वं चात्र मिथ्यादृष्टेः संसर्गात
8. ससगात . - जैन सि० दीपिका पृ० ३८
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