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अर्थात् मिथ्याज्ञान तथा मिथ्यादर्शन - मिथ्यात प्रत्यय का कारण हैं अर्थात्. मिथ्यात्व आश्रव - मिथ्याज्ञान और मिथ्यादर्शन से होता है । मिथ्यामार्ग का उपदेश देने वाले वचन को मिथ्यादर्शन वचन कहते हैं । "
यहाँ जो मिथ्याज्ञान तथा क्रमशः ज्ञानावरणीय तथा दर्शन गणि ने कहा है
मिथ्यादर्शन का उल्लेख किया जा रहा है वह मोहनीयकर्म का उदय है । नंदीसूत्र में देवद्धि
।
"अविसेसिया मई मइनाणं च मइअण्णाणं च । विसेसिया मती सम्मद्दिस्सि मई मइणाणं, मिच्छदिट्टिट्ठरख मई मइअण्णाणं । अविसेखियं सुयं सुयनाणं च सुयअन्नाणं च । विसेखियं सुयं सम्मद्दिट्टिश्स सुयं सुयनाणं, मिच्छदिट्ठिस्स सुयं सुयअन्नाणं ।
- नन्दीसूत्र, सू ४५
अर्थात् बिना विशेषताकी मति-अज्ञान और मतिअज्ञान उभयरूप है, विशेषता युक्त वही मति समदृष्टि के लिए मतिज्ञान है तथा मिथ्यादृष्टि की मति, मतिअज्ञान कहलाती है । विशेषता की अपेक्षा से रहित श्रुत-श्रुतज्ञान और श्रुतअज्ञान उभय रूप होता है एवं विशेषता पाकर वही सम्यग्दृष्टि का श्रुत श्रुतज्ञान तथा मिध्यादृष्टि का श्रुत श्रुतमज्ञान कहा जाता है ।
भारत, रामायण आदि ग्रन्थ मिथ्यादृष्टि के मिध्यात्व रूप से ग्रहण किये गये मिथ्यात हैं तथा सम्बगृहष्टि के सम्यक्त्व रूप से ग्रहण किये गये सम्यगश्रुत है अथवा मिध्यादृष्टि के भी भारत, रामायण आदि सम्यगश्रुत हैं क्योंकि उनके सम्यक्त्व में ये हेतु होते हैं इसलिये वे मिथ्यादृष्टि उन भारत आदि शास्त्र ग्रन्थों से ही प्रेरणा- बोध पाये हुए कई स्वपक्ष दृष्टि-अपनी मिध्यादृष्टि को छोड़ देते हैं इसलिए उनके लिए भी भारतादि सम्यगश्रुत हो जाते हैं । नन्दीसूत्र में देवद्धिगणि ने कहा है
१ - तद्विपरीक्षा मिथ्यादर्शनवाक ।
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- षट् स्वं १, १, सू० २ पु १ । पृ० ११७
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