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[ १३७ ] का अभ्यास करता रहे । मनुष्य का जन्म, धर्म का श्रवण, धर्म पर श्रद्धा, धर्म पर पराक्रम-ये चार वस्तुओं की प्राप्ति दुर्लभ हैं। इन चार वस्तुओं की दुर्लभता को जानकर मिथ्यात्वो सक्रियाओं का आचरण करें, जिससे वह संसार परोत होकर जल्द ही मोक्षपद को प्राप्त कर सकेगा। अस्तु मिथ्यात्वो शुभ क्रिया से संसार अपरीत्त से संसार परीत्त होने का, संसार परीत्त से सम्यक्त्व प्राप्ति की चेष्टा करता रहे।
चतुर्थ नरक तक के कतिपय मिथ्याहुष्टि नारको अनन्तर भव में अन्तक्रिया कर सकते हैं। शुद्ध क्रिया से हर व्यक्ति आध्यात्मिक विकास कर सकते हैं । यदि सक्रिया करे तो आध्यात्मिक विकास के द्वार सब के लिये खुले हुए हैं।
अत: मिथ्यात्वो सक्रियाओं के द्वारा संसार अपरिमित से संसार परोत बनने की चेष्टा करें । जैन ग्रंथों में कहा है
जे पुण गुरुपडिणीया बहुमोहा, ससबला कुसीला य । असमाहिणा मरंति उ, ते इंहि अणत संसारी ॥
___ --आतुर प्रत्याख्यान पयन्ना गा ४२ अर्थात् गुरु के अवर्णवाद आदि कहकर प्रतिकुल आचरण करने वाले, बहुत मोह वाले, सबल दोष वाले, कुशीलिये और असमाधि मरण से मरने वाले जीव अनंत संसारी होते हैं । मिथ्यात्री परनिन्दा से दूर रहे।
अस्तु मिथ्यात्वी परोत्तसंसारी तथा अपरोत्तसंसारी-(अनंत संसारी) दोनों प्रकार के होते हैं।
___ ७ : मिथ्यात्वी और सुलभबोधि दुर्लभबोधि ___ मिथ्यात्वी सुलभबोधि भी होते हैं और दुर्लभ बोधि भी। कृष्णपाक्षिक मियादृष्टि जीव नियमतः दुर्लभबोधि होते हैं तथा इसके विपरीत शुक्लपाक्षिक मिथ्यादृष्टि जीव सुलभबोधि और दुर्लभबोधि-दोनों होते हैं । अभवसिद्धिक मिथ्यादृष्टि जीव स्वभावगत नियम के कारण कभी भी बोधि को प्राप्त नहीं करेंगे अत: उनमें सुलभबाधि-दुर्लभबाधि का प्रश्न नहीं उठता। भव्यसिद्धिक मिध्यादृष्टि जीव दुर्लभबोधि और सुलभबोधि दोनों-होते हैं।
१-उत्तराध्ययन सूत्र अ ।
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