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[ १३५ ] प्रकार के होते हैं। शेष -दूसरे से चौदहवें गुणस्थान तक के जीव सिर्फ परीत संसार वाले होते हैं । प्रज्ञापना में कहा
"संमारपरित्तेणं०, पुच्छा गोयमा ! जहण्णेणं अन्तोमुहुत्तं, एक्को. से गं अगंतं कालं अवड्ढं पोग्गलपरियट्ट देसूणं।"
__-प्रज्ञापना पद १८ सू १३७८ टीका-मलयगिरि-यस्तु सम्यक्त्वादिना कृतपरिमितसंसारः स संसारपरीतः ।xxx। संसारपरीतो जघन्यतोऽन्तमुहूर्त ततः उद्धर्वमन्तकृकेवलित्वयोगेन मुक्तिभावात्, उत्कर्षतोऽनन्तंकालं-तमेव निरूपयति - 'अगंताओ' इत्यादि प्राग्वत् ततः उद्धर्वमवश्यं मुक्तिगमनात्।
अर्थात् संसार परीत्त जीव जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट देशोर अर्द्धपुद्गल परावर्तन के बाद अवश्य ही कर्मो का अन्तकर मुक्ति स्थान-मोक्ष स्थान प्राप्त करेंगे हो। सम्यक्त्व आदि शुभ क्रिया के द्वारा जीव संसार अपरीत्त से संसार परीत करते हैं। मिथ्यात्वी जीवों में सम्यक्त्व नहीं होता है, अत: वे किसी धार्मिक अनुष्ठान से अपरीत संसार से 'परोस संसार' करते हैं। बिना सक्रिया के परीत संसार नहीं कर सकते हैं। अपरीत संसार से परीत संसार करके ही जीव मोक्षगति को प्राप्त करते है। परीत संसार-भवसिद्धिक जीव ही करते हैं। अपरित संसार में भवसिद्धिक तथा अभवसिद्धिक-दोनों प्रकार के जीवों का उल्लेख मिलता है, जैसा कि प्रज्ञापना सूत्र में कहा है -
संसारअपरित्ते दुविहे पन्नत्त, तंजहा-अणादीए वा अपज्जवसिए, अणादीए वा सपज्जवसिए ।
-प्रज्ञापना पद १८। सू १३८१ टीका-यस्तु सम्यक्त्वादिना कृसपरिमितसंसारः स संसारपरीतः xxx। संसारपरीतः सम्यक्त्वादिना अकृतपरिमित संसार: xxx संसारापरीतो द्विधा-अनाद्यपर्यवसितो यो न कदाचनापि संसार व्यवच्छेदं करिष्यति, यस्तु करिष्यति सोनादि सपर्यवसितः ।
अर्थात् जो सम्यक्त्वादि सक्रिया से संसार को परिमित करता हैं वह संसार परीत। इसके विपरीत जिसने सम्बक्त्वादि सक्रिया से संसारपरिमित नहीं
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