________________
[१३४ ] ततो दक्षिणस्यां दिशि बहूनां कृष्णपाक्षिकाणामुत्पादसंभवात पूर्वोक्तकारणद्वयाच्च संभवन्ति ।
प्रज्ञापना पद ३॥ स २१३ टीका सबसे कम शुक्लपाक्षिक मिध्याहृष्टि जीव हैं उससे कृष्णपाक्षिक मिथ्यादृष्टि जीव अनंत गुने अधिक हैं। कृष्णपाक्षिक जीव अपने प्रचुर कर्म के कारण प्रायः दक्षिणगामी नरयिकों में उत्पन्न होते हैं। जिनका संसार परिभ्रमण काल देशोन अर्ध पुद्गलपरावर्तन शेष हैं वे शुक्लपाक्षिक मिण्यादृष्टि हैं और उससे अधिक संसार परिभ्रमण काल है वह कृष्णपाक्षिक हैं। सिद्धांत का नियम है कि अल्प संसारी थोड़े होते हैं अतः शुक्लपाक्षिक कम हैं, अधिक संसारी अधिक होते हैं अतः कृष्णपाक्षिक अधिक हैं। कृष्णपाक्षिक जोव बहुत तथा स्वभाव से दक्षिण दिशि में उत्पन्न होते हैं अन्यदिशि में नहीं। कहा है
"दीर्घ संसारी प्रचंड पाप के उदय से होते हैं, बहु पापोदय से क्रूरकर्म वाले होते हैं। प्रायः क्रूरकर्म वाले जीव भव्य होने पर भी दक्षिण दिशि में नैरयिक, सियंच, मनुष्य और असुरादि में उत्पन्न होते हैं।"
६ : मिथ्यात्वी और परीत्त संसारी-अपरीत्तसंसारी मिथ्यात्वी परीत्तसंसारी तथा अपरोत्तसंसारी ( अनंतसंसारी ) दोनों प्रकार के होते हैं । जिन मिथ्यात्वी के सक्रियाओं से भव परिमित हो गये हैं वे परीत्तसंसारी है । अर्थात अधिक से अधिक देशोन अर्धपुद्गल परावर्तनकाल के अन्तर्गत जो अवश्य मोक्ष प्राप्त करेंगे वे परीत्त संसारी हैं। इसके विपरीत जो मिथ्यात्वी अनंतकाल तक संसार में परिभ्रमण करते रहेंगे अर्थात् जिन जीवों के भवों की संख्या सीमित नहीं हुई है वे अनंत संसारी हैं।
मिथ्यात्व अवस्था में रहते हुए अर्थात् प्रथम गुणस्थान-मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में अतीतकाल में अनन्त जीवों ने सुकृति करते-करते सम्यक्त्व को प्राप्त किया है और भवरूपी अनंत संसार को सीमाबद्ध किया है अर्थात् अनन्त सांसारिफ से परीत्त सांसारिक बने हैं।
प्रथम गुणस्थान के जीव परीत्त संसारी-तथा अपरित संसारी दोनों
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org