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पंचम अध्याय १ : मिथ्यात्वी और क्रिया-कर्मबंधनिबंधनभूता-सद्अनुष्ठान क्रिया
कर्म बन्ध निबन्धनभूत को क्रिया कहते हैं । वह शुभ-अशुभ दोनों प्रकार की होती है। आरम्भिको आदि पचीस क्रियाओं में एक क्रिया-मिण्यादर्शन प्रत्यया क्रिया भी है। मिथ्यादर्शन अर्थात् तत्व में अश्रद्धान या विपरीतश्रद्धान से लगने वाली क्रिया मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया हैं। प्रथम गुणस्थान में यह क्रिया निरन्तर लगती रहती है। शल्य अर्थात् जिससे बाधा (पीड़ा ) हो उसे शल्य कहते हैं। मावशल्य के तीन भेद किये जाते हैं, यथा-माबाशल्य, निदानशल्प और मिथ्यादर्शनशल्प । विपरीत श्रद्धान को मिथ्यादर्शन शल्य कहते है।' मिथ्यात्वी की दृष्टि को मिथ्याहष्टि कहते हैं। प्रज्ञापना में दृष्टि के स्थान पर दर्शन का भी उल्लेख हुआ है। मिथ्यादर्शन प्रत्ययाक्रिया के दो भेद है यथा-ऊनातिरिक्त मिथ्यादर्शन तथा सद्व्यतिरिक्त मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया।
बात्मादि वस्तुओं के प्रमाण से अधिक या कम मानने या कहने रूप को मिथ्यादर्शन है उस मिथ्यादर्शन निमित्त से जो क्रिया लगती है वह मिष्यादर्शन प्रत्ययिकी क्रिया है।
उपयुक्त ऊनातिरिक्त मिथ्या दर्शन से भिन्न मिथ्यादर्शन निमित्त से—यथा आत्मा नहीं है-इत्यादि मान्यता रूप मिच्यादर्शन निमित्त से जो क्रिया लगती है वह सद्व्यतिरिक्त मिथ्यादर्शन प्रत्ययिकी क्रिया कहलाती है ।४
१-तो सल्ला पन्नत्ता, तंजहा-मायासले, णियाणसल्ले, मिच्छादसणसल्ले।
-ठाण• स्था । उ ॥सू ३८५ २-ठाणांग ठाणा १०। सू ७३४ ३-प्रज्ञापना पद १३६३५ ४-क्रियाकोश पृ० ५७
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