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[ १२६ ] छोड़कर शेष चार शरीर होते हैं । बैंक्रिय शरीर दो प्रकार का है-मूल वे क्रिय शरीर और उत्तर वैक्रिय शरीर । मनुष्य और निर्यञ्च में उत्तर वैक्रिय शरीर तपस्या विशेष से मिथ्यात्वी को होता है । मूल वैक्रिय शरीर देव तथा नारकी में होता है। मिथ्यादृष्टि तिर्यं च भी उत्तर वैक्रिय ९०० योजन कर सकते है। तियं च पंचेन्द्रिय में भी सक्रिया, शुभलेश्या-शुभयोग-शुभ अध्यवसाय आगम में माने गये हैं। माहारक शरीर चतुर्दश पूर्वधरों को होता है' मिथ्यादृष्टि को देशोन दस पूर्व से ऊपर की विद्या का अभाव है अतः किसी भी मिथ्यादृष्टि को थाहारक शरीर नहीं होता है। कहा है
सम्मदिट्ठीपज्जत्तसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे, णो मिच्छादिट्ठिपज्जत्त०, नो सम्मामिच्छादिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे।
-प्रज्ञापना पद २१ । सू १५३३ अर्थात् आहारक शरीर-सम्यगमिथ्यादृष्टि तथा मिध्याहृष्टि को नहीं होता है किन्तु सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले गर्भज मनुष्य को होता है। अथः आहारक लब्धि मिथ्यात्वी को नहीं होती है। चुकि मिथ्यात्वी को वैक्रिय शरीर होता है अतः वैक्रिय लग्धि, वैक्रिय समुद्धात भी होता है। विभंग शान लब्धि भी ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से तथा वीर्यलब्धि अंतराय कम के क्षयोपशम से मिथ्यात्वी को प्राप्त होती है। देखा जाता है कि मिथ्यात्वी निम्न अवस्था से उच्च अवस्था को भी प्राप्त करते हैं। बिना सद् आचरण के मिथ्यात्वी उच्च अवस्था को कभी भी प्राप्त नहीं कर सकता है। जिनभद्रक्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक भाष्य में मिथ्यात्वी के श्रुत रूप लब्धि को स्वीकार किया है। वैक्रिय तथा मानसिक बल-अयोपशम-गुणविशेष से होता है ।२
सर्वोषधिल धि अर्थात् जिसके मूत्र, विष्टा, कफ या शरोरके मैल रोग को दूर करने में समर्थ है । यह लब्धि भी मिथ्यात्वी से तपस्यादि के बल से मिल
१-प्रज्ञापना पद २१११५६॥ टीका
चतुर्दश पूर्वधर आहारकलब्धिमानआहारकशरीरमारम्ब वत्तते । २-प्रवचनसारोद्धार गा १५०८।
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