________________
[ १२६ ] नियमतः कृष्णपाक्षिक होते हैं। इसके विपरीत जो भवसिद्धिक मिथ्यात्वो हैं उनमें मोक्षप्राप्त करने की योग्यता स्वभावतः होती है। स्थानांग सूत्र के टीकाकार ने अभव्य में सम्यक्त्व की प्राप्ति न होने के कारण अपर्यवसित मिथ्यादर्शन स्वीकृत किया है।
"अभिग्रहिकमिथ्यादर्शनं x x x अपर्यवसितमभव्यस्मसम्यक्त्वाप्राप्तेः।
-ठाण० स्था २१॥ ८४। टीका । देवर्द्धिगणि ने नंदीसूत्र में कहा है
"खाओवसमियं पुण भावं पडुच्च अणादीयं अपज्जवसिय अहवा भवसिद्धियस्स सुयं साईयं सपज्जवसियं च, अभवसिद्धीयस्स सूर्य अणादीयं अपज्जवसियं ।
-नंदीसूत्र, सूत्र ७४,७५ अर्थात क्षायोपशमिक भाव की अपेक्षा (श्रुतज्ञान) अनादि अनन्त है अथवा भव्यसिद्धिक का श्रुत सादिसांत है क्योंकि मिथ्याश्रुत के त्याग और केवल ज्ञान की उत्पत्ति की अपेक्षा भव्य का श्रुत आदि अन्त वाला है, अभव्यसिद्धिक का का श्रुत-मिच्याश्रुत अनादि और अन्त रहित है क्योंकि अभव्यसिद्धिक प्रथम गुणस्थान को छोड़कर किसी भी काल में अन्यान्य गुणस्थान में प्रवेश नहीं करते हैं।
अतः मिथ्यात्वी भव्यसिद्धिक भी होते हैं तथा अभव्यसिद्धिक भी। यद्यपि दोनों प्रकार के मिथ्यात्वी अनंत-अनंत हैं। अल्पबहुत्व की दृष्टि से उन दोनों में से सबसे न्यून अभव्यसिद्धिक मिथ्यावी हैं ; उससे अनंत गुणे अधिक भव्यसिद्धिक मिथ्यात्वी हैं। सब गतियों में, सब स्थानों में, दोनों प्रकार के मिथ्यात्वो होते हैं। कहा है
१-भवा भविनीसिद्धि :- मुक्तिपदं येषां ते भवसिद्धिका भव्या इत्यर्थः।
प्रवचनसारोद्धार गा० १५०८ । टीका १७
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org