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[ १२७ ] सकती है। जिसका स्पर्श औषध का काम करता है उसे बामर्शोषधि लब्धि कहते है-यह लब्धि भी मिथ्यात्वी के विच्छेद नहीं है। कई मिष्यात्वी को लब्धि प्राप्त होने पर भी उसका दुरुपयोग नहीं करते है, ज्ञान का अहंकार नहीं करते हैं फलस्वरूप-कालान्तर में उनकी दृष्टि सम्यग हो जाती है, ग्रन्थि का छेदन-भेदन कर डालते हैं।
तेजसलब्धि किंवा तेजस समुद्घात भी मिथ्यात्वी को होता है बिना सक्रिया के ये भी नहीं हो सकते है।
मिथ्याहष्टि जीव में आहारक समुद्घात तथा केवलि-समुद्घात को बाद देकर पांच समुद्घात (वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात, मारणंतिक समुद्घात, वैक्रिय समुद्घात, तेजस समुद्घात ) होते हैं। मिथ्यादृष्टि तिर्यच पंचेन्द्रिय में भी आदि के पांच समुद्घात होते हैं क्योंकि उनमें कितनेक को तेजो लब्धि भी होती है। मिध्यादृष्टि देवों में भी आदि के पांच समुद्घात होते हैं क्योंकि उनमें वैक्रिय लब्धि तथा तेजोल ब्धि होती है । मिथ्यादृष्टि मनुष्य में भी पूर्वोक्त पाँच समुद्घाप्त होते हैं।
मिथ्यावृष्टि नारकी में प्रथम के चार समुद्घात होते हैं क्योंकि उनमें तेजोसलब्धि ओर आहारक लब्धि नहीं होती है।
तेरहवे गुणस्थानवर्ती जीवों में विशिष्ट शुभ अध्यवसाय होते हैं। परन्तु चतुर्दश गुणस्थान में योग का निरोध हो जाने के कारण अध्यवसाय नहीं होते हैं, ध्यान होता है। कहा है
इह केवलिसमुद्घातः केवलिनो भवति xxx। स च नियमाद् भावितात्मा विशिष्टशुभाध्यवसायफलितत्वात् ।
-प्रज्ञापना पद ३६॥ २१६८ । टीका तेरहवं गुणस्थानवतों भावितात्मा अणगार को विशिष्ट शुभ अध्यवसाय केवलि समुद्घास में भी होता है।
मियादी. को नियमित मासिधिको प्राति के समय में साफारोपयोग निममतः होता है, कासयोग नहीं । कहा है१-प्रापना पद १६॥ २१४७ टीका
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