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[ १२५ ] भवसिद्धियपुरिसाणं एवाओ हुति भणियलद्धीओ। भवसिद्धियमहिलाणवि जत्तिय जावंति तं वोच्छं। अरहंतचक्किकेसवबलसंमिन्ने य चारणे पुव्वा । गणहरपुलायआहारगं च न हु भवियमहिलाणं ॥ ६ ॥
---प्रवचनसारोद्धार गा १५०५, ६ अर्थात् भवसिद्धिक पुरुषों के उपयुक्त सभी लब्धियाँ होती है तथा भवसिद्धिक स्त्रियों के अठारह लब्धि ( अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, संभिन्नश्रोतोलब्धि, चारण, पूर्वधर, गणधर, पुलाक और आहारक को बाद देकर अठारह लब्धि होती है। इसके विपरीत अभवसिद्धिक जीवों में जो निश्चित रूप से मिथ्यादृष्टि होते हैं उनमें उपयुक्त अठाइस लब्धियों में से केवली आदि तेरह लब्धियों को बाद देकर पन्द्रह लब्धि मिलती है। कहा है
अभवियपुरिसाणं पुण दस पुचिल्लाउ केवलितं च । उज्जुमई विउलमई तेरस एयाउ न हु हुति ॥
-प्रवचनसारोद्धार गा १५०७ अर्थात् दस पूर्वधर ( अरिहंत आदि लब्धि ) विपुलमतिमनःपयवज्ञान, ऋजुमतिमन:पर्यवज्ञान तथा केवलो इन तेरह को बाद देकर अभवसिद्धिक जीवों में पंद्रह लब्धियाँ मिलती है।।
अस्तु भवसिद्धिक मिथ्यादृष्टि में भी उपयुक्त पन्द्रह लब्धियां मिलती है। ये सभी लब्धियां ज्ञानावरणीय आदि कर्मो के क्षयोपशम आदि से उपलब्ध होती है। क्षयोपशम निष्पन्न भाव-निरवद्य है। यथा-बालतपस्वी वैशिकायिन आदि को तेजो लेश्या-तेजो लब्धि उत्पन्न हुई थी तथा अम्बड़ परिव्राजक को वैक्रिय लब्धि थी ।
शरीर पाँच होते हैं, यथा-औदारिक शरीर, वैक्रिय शरीर, आहारक शरीर, तेजस शरीर और कार्मण शरीर । मिथ्यात्वी में आहारक शरीर को
१-प्रवचन सारोद्धार गा १४९४ । टीका
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