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[ ११८ ] सर्वविरति को ग्रहण नहीं कर सकता वह सम्यक्त्व में ही मरण को प्राप्त हो पाता है तब भी बसंख्यात भव (उत्कृष्टरूप से) ग्रहण कर मोक्ष प्राप्त करेगा ही। एक बार भी यदि मिथ्यात्वी सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है तो वह नियमतः संसारपरीत्त, शुक्लासिक है । उसकी मुक्ति की नींव लगजाती है।
मिथ्यात्वी सक्रिया से शुभाशुभ, उच्च गोत्र शुमनाम बऔर साता वेदनोग कर्म का बन्धन करता है, दीर्घ काल की अटवी का संक्षेपीकरण कर सकता है।
१-एक मिथ्यात्वी महाघोर कर्म करके, परम कृष्ण लेषा में मरण प्राप्त होकर सप्तम नारकी में उत्पन्न होता है, (२) एक मिथ्यात्वी माया कपट का आश्रय लेकर सियंच गति में उत्पन्न होता है । (१) एक मिथ्यात्वो प्रकृति की सरलता से, भद्रतादि गुणों से देवकुछ तथा उत्तरकुल क्षेत्र में युगलिये रूप में अथवा अन्य सुकुल में उत्पन्न होता है। और (४) एक मिथ्यावी बालरूप से, अकाम निर्जरा के कारण देवगति में उत्पन्न होता है।
उपयुक्त विषय पर चिन्तन किया जाय तो मालूम होगा कि पहले-दूसरे मिथ्यात्वी अशुभ कार्यों से अशुभ गति में उत्पन्न होते है तथा पोसरे-चौथे मिथ्यात्वी शुभ कार्यों से मनुष्यगति-देवगति में (शुभगति) उत्पन्न होते हैं। उपराध्ययन में कहा है
कम्मुणा बंमणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ। कम्मुणा वइसो होइ, सुद्दो हवा कम्मुणा ॥
उत्त० २५॥ ३३ अर्थात् कम से कोई ब्राह्मण होता है और कर्म से क्षत्रिय । कर्म से ही मनुष्य वश्व होता है और शुद्र भी कर्म से। यह निश्चित है कि मियात्वो के भशुभकार्यों से अशुभकर्म का बन्धन तथा शुभकार्यों से शुभकर्मो का बन्धन होता है। __ मिथ्यात्वी दर्शन, मान, चारित्र, तप, विनय, सत्य, समिति तथा गुप्ति आदि सदनुष्ठानिक क्रियानों में यथाशक्ति भावरूचि-वास्तविक सचि रखता है तो वह सम्यक्त्व की बानगी है, वह माक्ष मार्ग की धाराधना करता है।
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