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[ १०२ ] कितने भव के बाद मनुष्य जन्म में उसने बालतप का आचरण किया-मृत्यु प्राप्त कर कटपूतना वाणव्यंतरी देवी हुई।
अत: मिथ्यात्वी हिंसादि पापों से यथाशक्ति विरत होकर, सत्यवचन और और शुभ योग से पुण्य कर्मों का बंधन करता है जिसके कारण वह मनुष्यगति अथवा देवगति में उत्पन्न होता है। अस्तु सद् आचरण का फल निष्फल नहीं होता। निर्जरा रूप धर्म के बिना पुण्य नहीं हो सकता है। पुण्य-धर्म का अविनाभावो है-जैसा कि युगप्रधान आचार्य तुलसी ने कहा है
तच्च धर्माविनाभावि।
-जैन सिद्धांत दीपिका प्रकाश ४, सू १४
टीका-सत्प्रवृत्त्या हि पुण्यबंधः, सत्वृत्तिश्च मोक्षोपायभूतत्वात् अवश्यं धर्मः, अतएव धान्याविनाभावि बुसवत् तद्धर्म विना न भवतीति मिथ्यात्वीनां धर्माराधकत्वमसमवं प्रकल्प्य पुण्यस्य धर्माविनाभावित्वं नारेकणीयम् , तेषामपि मोक्षमार्गस्य देशाराधकत्वात् । निर्जराधर्म विना सम्यक्त्वलाभाऽसंभवाच्च । संवररहिता निर्जरा न धर्म इत्यपि न तथ्यम् । किं च तपसः मोक्षमार्गत्वेन धर्मविशेषेणत्वेन च व्याख्यातत्वात्। अनयैव दिशा लौकिकेपि कार्ये धर्मातिरिक्त पुण्यं पराकरणीयम्।
अर्थात् पुण्य का बंध-एकमात्र सत्प्रवृत्ति के द्वारा ही होता है, सत्प्रवृत्ति मोक्ष का उपाय होने से वह अवश्य धर्म है अतएव जिस प्रकार धान के विना तूड़ी पैदा नहीं होती है, वैसे ही धर्म के बिना पुण्य नहीं होता। मिथ्यात्वी धर्म की आराधना नहीं कर सकते, यह मानकर पुण्य की स्वतन्त्र उत्पत्ति बतलाना भी उचित नहीं, क्योंकि मिथ्यात्वी मोक्षमार्ग के देश (अंश) आराधक बतलाये गये हैं और उनके निर्जरा धर्म न हो तो वे सम्यक्त्वी भी नहीं बन सकते अतः उनके भी धर्म के बिना पुण्य बन्ध नहीं होता और संघररहित निर्जरा
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