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[ १००] अर्थात मैं भुजा उठाकर कहता हूँ कि धर्म से ही अर्थ और काम की प्राप्ति होती है। योगशास्त्र व पातंजल योगानुसार भी हम कह सकते हैं कि पुण्यबंध बिना शुभ योग के नहीं होता है। शांत सुधारस में (आस्रव-भावना के) भी कहा है कि शुभ योग के बिना पुण्य का बंध नहीं होता है।
शुद्धाः योगाः यदपि यतात्मनां, सवन्ते शुभकर्माणि । कांचननिगडांस्तान्यपि जानीयात् , हत निर्वृत्तिकर्माणि ॥
-शांतसुधारस अस्तु मिथ्यात्वी शुभ क्रिया से पुण्य का बंध करके मनुष्यगति, देवगति में उत्पन्न होता है। दशाश्रुतस्कंध सूत्र में कहा है
अत्थि सुक्कडदुक्कडाणं कम्माणं फलवित्तिविसेसे, सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णा फला भवंति, दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णा फला भवंति, सफले कल्लाणपावए, पच्चायंति जीवा।
–दशाश्रत० अ६। सू १७. अर्थात् सुकृत और दुष्कृत कर्मों का फल सुख और दु:ख रूप है । शुभ परिणाम से किये हुए कर्म शुभ फल वाले होते हैं तथा अशुभ परिणाम से आचरण किये हुए कर्म-प्राणातिपात आदि-नरक, निगोद आदि के अशुभ फल देने वाले हैं। पुण्य और पाप, सुख और दुःखरूपी परिणाम वाले होते हैं।
प्रदेशी राजा' जैसे-निष्ठुर ( महामिथ्यात्वी) व्यक्ति भी सद्संगप्ति से मिथ्यात्व भाष को छोड़कर सम्यक्त्व रूपी रत्न की प्राप्ति की। अन्तत: वे एक सच्चे श्रमणोपासक बने । श्रावकत्व धर्म की आराधना कर सुर्याभदेव हुए (सौधर्म देव लोक के एक विमान विशेष में उत्पन्न )। अत: मिथ्यात्वी शुभलेश्या, शुभ योग का अवलम्बन कर सम्यग्दर्शन प्राप्ति का उपाय सोचे। सचमुच हो सद्संगति के संयोग की प्राति होनी दुर्लभ है। सद्संगति से पतित व्यक्ति पावन बन जाता है। - जब मिथ्यात्वी करणविशेष से सम्यक्त्व, देशविरति और सर्वविरति में प्रवेश करता है उस समय प्रशस्त लेश्या होती है । परन्तु उत्तरकाल में छों लेश्या हो सकती है। कहा है
१-रायप्रश्नीय सूत्र
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