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वर्षा हेतुः
वृष्टिहेतोः शुभं वर्ष तेन तावत् स उच्यते । देशो वातञ्च देवादिवृष्टिहेतुस्त्रिधामतः ॥ ७ ॥
यदागम:-तिहि ठाणेहिं महावुट्टीकाए सिया, तंजहा-सिंचां देसंसि वा पएसंसि वा बहवे उद्गजोगिया जीवाय पोरगला य उद्गत्ताए वक्कमति विउक्कमति चयंति उववज्जति ॥ १ ॥ देवा नागा जक्खा भूता सम्ममाराहिता भवति, अन्नत्थ समुट्ठितं उद्गपोग्गलं परिणयं वासिउकामं तं देसं साहति ॥ २ ॥ अब्भवद्दलगं च णं समुट्ठितं परिशायं वासिउकामं णो वाउच्या विहुति ॥ ३ ॥
टीका वर्षणं वृष्टिरघःपतनं वृष्टिप्रधानः कायो- जीवनिकायो व्योमनि पदपूकाय इत्यर्थः । वर्षण धर्मयुक्तं बोदकं वृष्टिस्तस्याः कायो राशिर्वृष्टिकायः । महांश्चासौ वृ ष्टिकायश्च महावृष्टिकायः स ' स्याद् भवेत् । तस्मित्तत्र मालवकुङ्कणादौ । च शब्दो महावृष्टिकारणान्तर समुच्चयार्थः । णमित्यलंकारे । देशे जनपदे प्रदेशे तस्यैव एक देश
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को बाँचने में विद्वानों को निःशंक रहना चाहिये ॥ ६ ॥ वर्षा होने से वर्ष अछा होता है, इसलिये प्रथम वर्षा के हेतु कहते हैं- देश वायु और देव ये तीन वर्षा के कारण माने हैं | जी
तीसरे स्थानांग में वर्षा होने का कारण तीन प्रकार से कहा है, जिस देश में जलयोनि के जीवों के पुगलों का विनाश और उत्पत्ति हो उस समय वहाँ बहुत वर्षा होती है ॥ १ ॥ जहाँ नागकुमार यक्ष और भूत आदि देवों की अच्छी तरह पूजा की जाती हो वहाँ दूसरे देश में मेघ बरसने लगे वहाँ से लेआकर वे देव बरसावें ||२|| वर्षा के बादल उदय होकर वरसने लगे उस समय पायु नाश न करें ||३|| इन तीन स्थानों में दर्षा अच्छी होती है ।
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