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मेघमहोदये
दीपोत्सवदिने प्रात ग्रन्थः प्रारभ्यते मया ।
अस्मिन् जगद्गुरोर्भक्त्या भूयाद् वाक् सिद्धिसन्निधिः ॥३॥ स्थानाङ्के दशमस्थाने न्यवेदि सुषमोदयः । श्रीमद्वीर जिनेन्द्रेण सर्वलोकहितैषिणा ॥ ४ ॥ वृष्टेः कालाकालरूप स्थानाद्यर्यनिरूपणात् । सौत्रं विवरणं स्पष्टं, ग्रन्थेऽस्मिन्नभिधीयते ॥ ५ ॥
यदागमः --- दसहि ठाणेहिं प्रगाढं इसमें जाणिज्जा. तंजहा - प्रकाले न वरिसइ १, काले वरिसह २, असाहू न पूजति ३, साह पूजति ४, गुरूहिं जणो रूम्मं पडिवको ५, मगुण्णा सदा ६, मणुण्णा रूवा ७, मणुण्या रसा ८, मण्णा गंधा १, मणुष्णा फासा १०, इति ॥
ग्रन्थस्याभ्यसनादस्य सिद्धान्तप्रतिपादनम् ।
तदाचनेऽस्य तत्वज्ञे निश्शङ्कत्वं विधीयताम् ॥ ६ ॥
दिवाली के दिन प्रातः काल के समय मैंने इस ग्रन्थ का प्रारम्भ किया | इस जगत् में जगद्गुरु (श्री हीर विजयसूरि) की भक्ति से मेरी वचनसिद्धि का विस्तार हो ॥३॥ स्थानांगसूत्र के दशवें स्थान में सर्वलोक के हितेच्छु श्रीमहावीरजिनवर ने सुखम नाम के आरा ( युग ) का वर्णन किया है ॥ ४ ॥ वर्षा का काल अकाल रूप और स्थान आदि के अर्थ को जानने के लिये इस ग्रन्थ में सूत्रों का विवेचन स्पष्ट रूप से कहा जाता है ||५|| स्थानांगसूत्र के दर्शवें स्थान में उत्कृष्ट सुखाकल का वर्णन इस प्रकार है--- अकाल में वर्षा न बरसे १, कल में बरसे २, असाधु को न पूजे ३, साधु को पूजे ४, गुरु का अच्छे भाव से विनय करें ५, अनुकूल ( मनोज्ञ ) शब्द ई, अनुकूल रूप ७, अनुकूल रस ८, अनुकूल गंधε, और अनुकूल स्पर्श १० ये दश सुखनकाल में होते हैं ॥ इस ग्रन्थ के अभ्यास करने से सिद्धान्त प्रतिपादन किया जासकता है, उस
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