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+ समस्या के स्रोत : आस्रव, समाधान के स्रोत : संवर ५९
होती है, तब आत्मा-अनात्मा का भान नहीं रहता । आत्मा को मानते हुए भी अपने तुच्छ स्वार्थ के हेतु दूसरी आत्माओं की उपेक्षा करके मनुष्य परस्पर संघर्ष, संकट, संहार, पीड़ा, विपत्ति आदि समस्याओं को पैदा करता है; यही कर्मों के आगमन (आन) और बन्ध का कारण बनता है। मिथ्यात्व के कारण जीव को कभी-कभी अनन्तकाल तक सद्द्बोध, सम्यग्दृष्टि या सम्बोधि नहीं मिलती ।
मिथ्यात्व का स्वरूप और तात्पर्यार्थ विवेक-विरोधी विश्वास मिथ्यात्व है। अर्थात् जो वस्तु जैसी नहीं है, उसे वैसी मानना मिथ्यात्व है। 'पर' को 'स्व' मानना सबसे बड़ा मिथ्यात्व - आम्रव है। 'पर' वह है, जो आत्मा से भिन्न है, सदा साथ न रहे। इस दृष्टि से धन, कंचन, मकान, जमीन-जायदाद सम्पत्ति आदि तो पर-भाव हैं ही, शरीर, मन, प्राण, बुद्धि, इन्द्रिय आदि अथवा सजीव कुटुम्ब, परिवार, मित्र आदि भी पर-भाव हैं। इन्हें 'मैं' या 'मेरा' मानने से इनके प्रति अहंत्व - ममत्व-स्वत्व बुद्धि रखने से स्वार्थान्धता, अहंकार, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, वैर - विरोध, असंयम, राग-द्वेष या कषाय अथवा आत्म-बुद्धि आदि पैदा होती है । पर - पदार्थों के प्रति राग-द्वेष, मोह, घृणा, आसक्ति आदि होने से मनुष्य अहंता-ममता, विषय-वासना, कषाय-कालुष्य, कामना-नामना आदि के जाल में फँसकर कर्मास्रव व कर्मबन्ध करता है, जो नाना दुःखरूप समस्याएँ पैदा करते हैं।
मिथ्यात्व के कारण अगणित समस्याएँ पैदा होती हैं
इसी मिथ्यात्व के कारण मनुष्य मोहान्ध, स्वार्थान्ध, जात्यन्ध, राष्ट्रान्ध, प्रान्तान्ध एवं आसक्ति-परायण होकर समभाव, शमभाव एवं आत्मौपम्यभाव, मैत्रीभाव आदि से विचलित हो जाता है । फिर वह अपने क्षणिक वैषयिक सुखों की प्राप्ति के लिए दूसरे प्राणियों की, यहाँ तक कि मनुष्यों तक की हिंसा, हत्या, पीड़ा, शोषण, शिकार कर बैठता है । वह उन्हें नाना प्रकार से त्रास देता है, गुलाम बनाता है, जला देता है, मारपीट करता है, प्रताड़ित करता है । समभाव से विचलित होकर ही वह असत्याचरणं करता है, चोरी, ठगी, लूटपाट, डकैती आदि करता है, बलात्कार या व्यभिचार करता है, दूसरों के धन का अपहरण या अधिक धनसंग्रह के लिए दूसरों का शोषण, उत्पीड़न, जमाखोरी, मुनाफाखोरी, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी आदि करता है। ये सब काले कारनामे उसी मिथ्यात्व की देन हैं। मिथ्यात्व के कारण ही वह जाति, कुल, बल, तप, श्रुत, वैभव, लाभ आदि का मद करके दूसरों का तिरस्कार करता है । मिथ्यात्व के कारण अहिंसा, संयम, तप आदि आत्म-धर्म को अधर्म समझता है। धनवृद्धि, प्रतिष्ठावृद्धि, यशकीर्ति-प्राप्ति आदि जो सांसारिक उपलब्धियाँ कर्मबन्ध की कारण हैं, मिथ्यात्व होने पर इनमें हिंसा, मद,