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४८२ कर्मविज्ञान : भाग ६
उसे आचार्य के द्वारा दिया हुआ प्रतिज्ञावचन याद आया कि किसी भी कार्य को सात कदम पीछे हटकर कुछ सोचे बिना सहसा न करना। बस, इसी से वह पीछे हटा, तलवार की दीवार से टकराने की आवाज से पुष्पचूला जाग गई और उसके मुँह से निकला - पधारो भैया ! इस नियम के कारण आँखों देखी बात भी झूठी सिद्ध होने से बंकचूल अभ्याख्यान और हिंसा के पाप से बच गया ।
अंजना जैसी महासती पर भी उसके पारिवारिक जनों ने किसी प्रकार की. जाँच-पड़ताल किये बिना ही मिथ्या कलंक लगा दिया था। शंख राजा ने जाँच-पड़ताल या पूछताछ किये बिना ही अपनी पत्नी कलावती पर शंका करके उसके दोनों हाथ कटवाकर निष्कासित करवा दिया था । कितना सहना पड़ा था, उन सतियों को अभ्याख्यान (झूठा आल) लग जाने पर ?
अभ्याख्यानी प्रायः अविवेकी, छिद्रान्वेषी, मन्दबुद्धि, मूढ़ताप्रेरित और पूर्वाग्रही होता है। वह सत्य-असत्य का निर्णय न करके बहम या भ्रम से किसी के विषय में कुछ का कुछ समझ लेता है।
धार्मिक-साम्प्रदायिक क्षेत्र में भी अभ्याख्यान भयंकर है
अभ्याख्यान जैसे व्यावहारिक क्षेत्र में होता है, वैसे धार्मिक-साम्प्रदायिक क्षेत्र में होता है। ‘स्थानांगसूत्र' में वर्णित 'धर्म का अधर्म माने-समझे तो मिथ्यात्व' आदि १० प्रकार का मिथ्यात्व भी अभ्याख्यान का ही रूप है। दस प्रकार के मिथ्यात्व से ग्रस्त व्यक्ति भी गुण को अवगुण और अवगुण को गुण के रूप में विपरीत आरोपण करके मानता-जानता-देखता है। मंखलीपुत्र गोशालक ने भगवान महावीर पर दोषारोपण किया कि "वह तीर्थंकर और सर्वज्ञ नहीं हैं, मैं तीर्थंकर हूँ" इत्यादि । अहिंसा की विभूति भगवान महावीर पर भी दोषारोपण किया कि उन्होंने माँसाहार किया था। बेसिर-पैर की गप्पें हाँकना अभ्याख्यानियों का काम है। हेमचन्द्राचार्य के विषय में यह गप्प उड़ा दी कि वे अन्तिम अवस्था में मुसलमान बन गये थे, क्योंकि मरते समय उनके मुँह से 'अल्ला' शब्द निकला था। साम्प्रदायिक कट्टरता से युक्त व्यक्ति दूसरे मत, पंथ, सम्प्रदाय पर कई प्रकार के झूठे आक्षेप लगाते हैं। '
अभ्याख्यानी द्वारा घोर कर्मबन्ध तथा कटुफल भोग
साधु-संतों, महासतियों एवं सज्जनों पर ऐसा दोषारोपण (अभ्याख्यान) करने से अभ्याख्यानी ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्म का तो बन्ध करता ही है, मोहनीय कर्म का भी तीव्र बन्ध करता है, इसके अलावा अशुभ नामकर्म तथा नीचगोत्र का भी बन्ध करता है । इन अशुभ कर्मों के उदय में आने
१. पाप की सजा भारी, भा. २' से भाव ग्रहण, पृ. ८८३-८९७