Book Title: Karm Vignan Part 06
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 532
________________ ॐ ५१२ 8 कर्मविज्ञान : भाग ६ * तुम्बे पर लेप के रूपक द्वारा पापस्थानों से गुरुत्व-प्राप्ति का बोध गणधर गौतम स्वामी ने इसी सूत्र के सन्दर्भ में प्रश्न किया है-भगवन् ! (अष्टादश पापस्थानों से अविरति व विरति से) जीव कैसे गुरुत्व (भारीपन) या लघुत्व (हलकेपन) को शीघ्र प्राप्त हो जाता है? इसका समाधान करते हुए भगवान ने एक रूपक के द्वारा समझाया-गौतम ! जैसे कोई पुरुष एक बड़ा-सा निश्छिद्र और निरुपहत (बिना टूट-फूट वाला) सूखा तुम्बा लेकर उस पर कुश और डाम (नारियल की जटा) लपेटता है, फिर उस पर मिट्टी के लेप से लेपन करता है। तत्पश्चात् उसे आँच में देकर तपाता है। उसके सूख जाने पर दूसरी बार फिर उस पर दर्भ और कुश लपेटता है और गीली मिट्टी का लेप करता है, फिर उसे आग में तपाता है, सूख जाने पर फिर तीसरी बार भी पूर्ववत् दर्भ और कुश लपेटकर तथा उस पर गीली मिट्टी का लेप करके आग में तपाता है, सूख जाने पर इसी उपाय से क्रमशः सात बार दर्भ-कुश को लपेटकर उस पर गीली मिट्टी का लेपन करके आँच में तपाकर सुखाता है। तत्पश्चात् आठवीं बार गीली मिट्टी के लेपनों से लीपता है। फिर उस तुम्बे को पुरुष डूब जाय तथा तैरकर पार न किया जा सके, ऐसे अथाह जल में डाल देता है। ऐसी स्थिति में हे गौतम ! मिट्टी के आठ-आठ लेपों से भारी भरकम बना हुआ वह तुम्बा उस पानी के ऊपरी सतह को लाँघकर नीचे भूमितल में जाकर स्थित हो जाता है। हे गौतम ! इसी तरह जीव भी प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य नामक १८ पापस्थानों से अष्टविधकर्मों की प्रकृतियाँ अर्जित करके गुरु, गुरुतर और गुरुतम होकर आयुष्यपूर्ण होने पर काल करके भूमितलों का क्रमशः अतिक्रमण करते हुए ठेठ नीचे नरकतल में जाकर ठहरते हैं। इस प्रकार हे गौतम ! जीव शीघ्र गुरुत्व (भारीपन) को प्राप्त होते हैं।' पापस्थानों से मुक्त मानव ऊर्ध्वगमन करता है हे गौतम ! इसी प्रकार जब उस तुम्बे का ऊपर का पहला मिट्टी का लेप पानी के कारण सड़-गलकर उतर जाता है, तब नीचे के भूमितल से थोड़ा-सा ऊपर उठ १. कहं णं भंते ! जीवा गुरुयत्तं वा लहुयत्तं वा हव्वमागच्छंति? गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे एगं महं सुक्कं तुंबं निच्छिदं निरुवहयं दब्भेहिं य कुसेहिं य बेढेइ, २ ता, मट्टियालेवेण लिंपइ २ ता उण्हे दलयइ २ ता सुक्कं समाणं दोच्चं पितच्चं पि एवं खलु एएणं उवाएणं सत्तरत्तं अंतरा वेढेमाणे अंतरा लिंपेमाणे अंतरा सुक्कावेमाणे जाव अहिं मट्टियालेवेणं आलिंपइ २ ता अथाह-मतारमदपोरिसियसि उदगंसि पक्खिवेज्जा। से तुंबे गरुयभारियाए उप्पिं सलिलमइवइत्ता अहे धरणियलपइट्ठाणे भवइ। एकामेव गोयमा जीवा वि पाणाइवाएणं जाव मिच्छादसणसल्लेणं अणुपुब्वेणं अट्ठकम्मपगडीओ समज्जित्ता तासिं.. गुरुपभारियाए कालमासे कालं किच्चा धरणियलमइवइत्ता अहे नगरतल-पइट्टाणा भवंति। -ज्ञाताधर्मकथा, अ.६

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