Book Title: Karm Vignan Part 06
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 537
________________ ॐ पतन और उत्थान का कारण ः प्रवृत्ति और निवृत्ति 8 ५१७ 8 देंगे। इस भ्रान्ति को दूर करने हेतु एक आचार्य ने कहा है-“न तो कोई किसी को दुःख देता है या दुःखी करता है और न ही कोई किसी को सुख देता है या सुखी करता है। हे आत्मन् ! जो भी तूने पूर्व-जन्म या जन्मों में शुभ या अशुभ आचरण किया है, वही संचित पूर्वकृत कर्म ही आज तुझे सुखी-दुःखी कर रहा है।" दूसरा कोई भी सुख-दुःख का दाता नहीं है। दूसरा मुझे सुख या दुःख देता है, यह खोटी बुद्धि (मिथ्याज्ञान) है। जिसने शरीरादि के कारणवश जो भी जल्दबाजी में पुण्य या पापकर्म किये हैं, उन्हीं का अच्छा-बुरा फल सभी भोगते हैं।"१ _ अविवेकी सुख-दुःख के मूल को नहीं सोचता मनुष्य चाहता तो सुख है, परन्तु सुख के मूल धर्म का आचरण नहीं करता; धर्म (अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म का या रत्नत्रयरूप धर्म) का आचरण नहीं करना चाहता। प्रत्युत पापकर्मों को वह आदर और उत्साहपूर्वक खुशी-खुशी, जाति-कुलादि के मद से गर्वित होकर करता है, परन्तु पाप का फल भोगना नहीं चाहता, उस समय टालमटूल करता है। परन्तु वह पापकर्म जब उदय में आता है, तब किसी को भी नहीं छोड़ता, वह धन या अन्य रिश्वत से कदापि नहीं छोड़ता। पापी जीव अपने ही पापों से दुःख पाता है, भयंकर यातनाएँ उसे ही भोगनी पड़ती हैं। किसी भी भगवान या ईश्वर, गॉड या खुदा से माफी माँगने भर से कोई भी जीव अपने पापकर्मों के फल से बच नहीं सकता। धर्मस्थानों में क्रिया करने से पाप नहीं धुल सकते कई मनुष्य यह सोचते हैं कि हम मन्दिर, चर्च, मसजिद, उपाश्रय, गुरुद्वारा आदि धर्मस्थानों में जाकर भगवान की, खुदाताला की, गॉड की या परमात्मा की स्तुति, भक्ति, प्रार्थना, नमाज आदि कर लेते हैं और अपने धर्म-सम्प्रदाय के माने हुए क्रियाकाण्ड जप, नामस्मरण, तप या स्वध्याय (ग्रन्थवाचन) आदि कर लेते हैं, इतने से हमारे सब पापकर्म धुल जाएँगे। बाहर घर में, समाज या राष्ट्र में, व्यवसाय में या नौकरी में चाहे जो कुछ पापकृत्य करें, भ्रष्टाचार, असदाचार करें, उन सब पापकृत्यों को धर्मस्थान में जाकर धो आते हैं अथवा थोड़ा-सा दान, पुण्य १. (क) न परो करेइ दुक्खं, नेव सुहं, कोई कस्सइ देई। . जं पुण सुचरिअ-दुचरिअ परिणमउ पुराणयं कम्म।। (ख) सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता, परो ददातीति कुबुद्धिरेषा। - पुराकृतं कर्म तदेव भुज्यते, शरीर हेतोस्त्वरया त्वया कृतम्॥ २. धर्मस्य फलमिच्छन्ति, धर्मं नेच्छन्ति मानवाः। फलं पापस्य नेच्छन्ति, पापं कुर्वन्ति सादराः।।

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