Book Title: Karm Vignan Part 06
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 538
________________ ॐ ५१८ * कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ पर है। करने से पाप धुल जाते हैं। परन्तु यह सब निराभ्रम है। जब तक उन पापकर्मोंदुष्कर्मों को मन से नहीं त्यागेंगे, स्वेच्छा से पापकर्मों को त्यागने का संकल्प नहीं करेंगे, तब तक वे पापकर्म जरा-से क्रियाकाण्डों के छींटों से या भगवान की बाह्य भक्ति से मिटने वाले नहीं हैं। भय से पापकर्म न करने वाले भी पाप के फल से नहीं बचते कई लोग यह सोचते हैं कि हमें पाप करते हुए कोई देखता नहीं है अथवा हम उन पापकृत्यों को ऐसे एकान्त में करेंगे कि समाज, राष्ट्र या परिवार में हमारी निंदा भी नहीं होगी और सरकार भी हमें अपने पापकर्मों की सज़ा नहीं दे पाएगी। रही बात परलोक की या भगवान की। भगवान तो दयालु है, वह तो माफी माँग लेने से माफी दे देगा, परलोक में वे पाप कहाँ हमें सजा देने आएँगे; क्योंकि पापकर्म तो जड़ हैं, पुद्गल हैं। उनमें सजा देने की शक्ति ही कहाँ है?" यह भ्रष्टचिन्तन भी कुबुद्धि और कुतर्क की उछलकूद है। पापकर्म का भय नहीं, पापकर्म कोई देख न ले, यह भय है . इससे यह स्पष्ट है कि निःशंक होकर पापकर्म करने वाले ऐसे तथाकथित लोगों को पापकर्म का कोई भय नहीं है, अर्थात् वे पापभीरु नहीं हैं, सिर्फ डर इसी बात का है कि पापकर्म करते हुए कोई देख न ले। कोई मेरी पोल न खोल दे। ऐसे लोग छिपकर पापकर्म करते हैं। कोई न देखता हो तो चोरी, हिंसा, दुराचार आदि कर लेते हैं। इसीलिए एक आचार्य ने पाप-पुण्य का लक्षण किया है-“प्रच्छन्नं पापम्, प्रकटं पुण्यम्।"-जो प्रच्छन्न (छिपकर) होता है, वह पाप है और प्रकट में होता है, वह पुण्य है। जो साधक भी छिपकर, एकान्त में, गुपचुप पापकर्म करते हैं, उनका मुनित्व या साधकत्व खोखला है, वे केवल वेष से साधु हैं, आचरण से नहीं। इसी तथ्य को भगवान महावीर ने स्पष्ट किया है जो परस्पर एक-दूसरे की आशंका से, भय से या दूसरे के सामने (उपस्थिति में) लज्जा के कारण पापकर्म नहीं करता, तो क्या ऐसी स्थिति में उस (पापकर्म करने) का कारण मुनि होना है ? कदापि नहीं।''२ अन्तर में पापकर्म-त्याग की प्रेरणा नहीं जगी, वहाँ पापकर्म-त्याग सच्चा नहीं इस सूत्र का आशय यह है कि कोई भी आत्मार्थी-साधक अथवा अध्यात्मज्ञानी मुनि पापकर्म का त्याग केवल काया से या वचन से ही नहीं, मन से भी करता है। १. 'पाप की सजा भारी, भा. १' (प्रवक्ता-मुनि श्री अरुणविजय जी) से भाव ग्रहण, पृ. १२१-१२२ २. जमिणं अण्णमण्ण-वितिगिच्छाए पडिलेहाए ण करेति पावं कम्मं किं तत्थ मुणी कारणं सिया ?

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