________________
ॐ पतन और उत्थान का कारण : प्रवृत्ति और निवृत्ति 8 ५२५ ®
उसने पिता से साफ-साफ कह दिया-“मैं ये हिंसादि पापकर्म कतई नहीं करूँगा
और न ही आपके पापवर्द्धक व्यवसाय में हिस्सेदार बनूँगा। मैंने भगवान महावीर से सुना है-यह महापाप है, जिसका भारी दण्ड अत्यन्त दुःखदायक नरक में लाखों-करोड़ों वर्षों तक भोगना पड़ेगा।" इस प्रकार हिंसादि पापों से विरत होकर सुलसकुमार भगवान महावीर का उच्च कोटि का श्रावक बना। उसने आत्मा में निरीक्षण-समीक्षण की वृत्ति बना ली, जिसके फलस्वरूप उसकी चेतना का ऊर्ध्वारोहण हो सका। निष्कर्ष यह है कि कुल परम्परागत पापकर्मों को वृत्ति में से छोड़ने पर पापस्थान छूटने हैं, वे प्रवृत्ति में भी नहीं आते।'
यतनापूर्वक प्रवृत्ति करने से पापकर्म से बचाव हो सकता है 'दशवैकालिकसूत्र' में शिष्य के इस प्रश्न पर कि चलने-फिरने, खाने-पीने, सोने-बोलने आदि प्रत्येक प्रवृत्ति में पापकर्म का बन्ध होता है, साधक पापकर्म से कैसे बच सकता है? इसके समाधान में कहा गया है-जयणा (यत्नाचार) से चलने-फिरने, सोने-खाने आदि की प्रवृत्ति करने से पापकर्म का बन्ध नहीं होता। यह सूत्रगाथा केवल साधुओं के लिए ही हो, ऐसी एकान्त बात नहीं है। जो भी आत्मार्थी है, कर्ममुक्ति का इच्छुक है, वह यदि अपने मन-वचन-काया से जो भी शुभ प्रवृत्ति करे, वह,सावधान, विवेकी और आत्मदृष्टि-परायण होकर करे तो पापकर्म के बन्ध से विरत हो सकता है।
. 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' का आत्मदृष्टि-साधक
___ पापकर्मों से सहज विरत हो जाता है पापकर्मों से विरत होने का दूसरा ठोस उपाय यह बताया है कि आत्मदृष्टिसाधक जब सर्वभूतात्मभूत समस्त प्राणियों के प्रति आत्मौपम्य दृष्टिवान् होकर समस्त प्राणियों पर समभाव की दृष्टि रखता है, अर्थात् जैसे अपनी आत्मा का अस्तित्व है, वैसे ही दूसरे प्राणियों की आत्मा का अस्तित्व है। वह जब दूसरे प्राणियों का अस्तित्व स्वीकारता है, तब उसकी दृष्टि अनायास ही पर-भावों से हटकर अपने आत्म-भावों की ओर जाती है। इस कारण वह स्व-रक्षण की वृत्ति को सर्व-रक्षण में बदल देता है। मेरी तरह दूसरों को भी हिंसा, असत्य, चोरी आदि प्रिय नहीं हैं। इस प्रकार के आत्म-सम्प्रेक्षण से वह हिंसादि विभावों में प्रवृत्त न होकर अपनी आत्म-हित की प्रवृत्ति में जुट जाता है। ऐसे करने से उसके आसवों का प्रवाह बन्द
.. १. 'पाप की सजा भारी' से भाव ग्रहण, पृ. १७४-१७५ २. जयं चरे जयं चिट्ठे जयमासे जयं सए।
जयं भुंजतो भासंतो पावकम्मं न बंधइ।
-दशवैकालिकसूत्र, अ. ४, गा. ८