Book Title: Karm Vignan Part 06
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 535
________________ ® पतन और उत्थान का कारण : प्रवृत्ति और निवृत्ति ५१५ ॐ सत्ताधीश बनकर पूजा-प्रतिष्ठा पाने के लिए अनेक प्रकार के झूठ-फरेब, छल-प्रपंच और तिकड़मबाजी करता है। कई व्यक्ति ऐसे पापकृत्यों के लिए माया, कपट, झूठ, हिंसा, बेईमानी और धोखेबाजी करने में सिद्धहस्त होते हैं। अपने तुच्छ क्षणिक जीवन में पूजा-प्रतिष्ठा पाने के लिए कई नामी साधक भी हिंसा, असत्य, अभ्याख्यान, पर-परिवाद, माया, बेईमानी, रति-अरति आदि पापस्थानों का निःसंकोच सेवन करके अपने त्याग, वैराग्य और संयम की बलि दे देते हैं। वे मन ही मन राग, द्वेष, मोह, ईर्ष्या, घृणा, वैर-विरोध आदि में पापकर्मों की लहरों में डूबते-उतरते रहते हैं। परन्तु एक आचार्य ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा है-“मनुष्यलोक में यह आश्चर्य है कि ऐसे लोग (जो पाप और धर्म का स्वरूप और फल जानते हुए भी) प्रसंगवश धर्माचरण भी नहीं करते, प्रत्युत प्रयत्नपूर्वक (चलाकर) पापकृत्यों का आचरण करते हैं। सचमुच ऐसे लोग क्षीर (दूध) को छोड़कर विष का पान करते हैं।''२ पापकर्मों के फल से कोई भी बच नहीं सकता ____कई लोग अन्ध-विश्वासपूर्वक यह सोचते हैं कि हम चाहे जितना पापकर्म करें, अमुक देवी, देव, भगवान, कुलदेवी अथवा अमुक सत्ताधीश या धनाढ्य व्यक्ति हमें पापकर्मों के फल से बचा लेंगे, हमारा बाल भी बाँका न होने देंगे। परन्तु यह निरा भ्रम है। कहा भी है-अपनी कर्म-परिणति से जीव ने जन्म-जन्मान्तर में जो भी अच्छे-बुरे = पुण्य-पापकर्म किये हैं, उन्हें बदलने या नष्ट करने में (स्वयं के सिवाय) देवी-देवता या असुर आदि कोई कुछ भी नहीं कर सकते हैं।" और "अत्यन्त उग्र (उत्कट) पुण्य-पापों का फल तो प्रायः इसी जन्म में यहीं प्राप्त हो जाता है। फिर वह तीन वर्ष में, तीन मास में, तीन पक्ष में या तीन दिन में ही क्यों न हो (जब भी कर्म उदय में आ जाए), फल अवश्य ही भोगना पड़ता है।" जिनके लिए पापकर्म करता है, फल भोगने में वे हिस्सा नहीं बँटाते आश्चर्य तो यह है, मनुष्य जिन निमित्तों के आधीन होकर पापकर्म करता है, १. (क) दुहओ जीवियस्स परिवंदण-माणण-पूयणाए जंसि एगे पमायंति (पमोयंति)। _ -आचारांग, श्रु. १, अ. ३, उ. ३ (ख) देखें-इसी सूत्र की व्याख्या, आचारांगसूत्र, श्रु. १, अ. ३, उ. ३ (आ. प्र. समिति, ... ब्यावर) में, पृ. १११-११२ २. यत्नेन पापानि समाचरन्ति, धर्मं प्रसंगादपि नाचरन्ति। आश्चर्यमेतद्धि मनुष्यलोके, क्षीरं परित्यज्य विषं पिबन्ति।

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