Book Title: Karm Vignan Part 06
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 531
________________ ॐ पतन और उत्थान का कारण : प्रवृत्ति और निवृत्ति ® ५११ ॐ आत्मा के अधोगमन के कारण : अठारह पापस्थान 'आवश्यकसूत्र' आदि आगमों के अनुसार-१८ पापस्थान (पापकर्मबन्ध के कारण) ये हैं-(१) प्राणातिपात, (२) मृषावाद, (३) अदत्तादान, (४) मैथुन, (५) परिग्रह, (६) क्रोध, (७) मान, (८) माया, (९) लोभ, (१०) राग, (११) द्वेष, (१२) कलह, (१३) अभ्याख्यान, (१४) पैशुन्य, (१५) पर-परिवाद (पर-निंदा), (१६) रति-अरति, (१७) माया मृषावाद, (१८) मिथ्यादर्शनशल्य। जीव पापों के सेवन से भारी और विरति से हलके होते दिखाई क्यों नहीं देते ? कुछ लोगों का यह तर्क है कि इन अठारह पापस्थानों से जीव (आत्मा) भारी होता तथा इन पापस्थानों से विरत होने से हलका होता हुआ दिखाई नहीं देता है, तब कैसे समझा जाए कि इन १८ पापस्थानों से या इनसे निवृत्ति से जीव भारी या हलका होता है? इसका समाधान कर्मविज्ञान की दृष्टि से यों समझना चाहिए-मूल में (शुद्ध) आत्मा न तो भारी है और न हलकी है। आत्मा जब इन प्राणातिपात आदि अशुद्ध विभावों से युक्त होती है, तब भावतः पापकर्म का बन्ध करती है, जीव के वे भाव भी अवधिज्ञानी, मनःपर्यायज्ञानी आदि अतीन्द्रियज्ञानियों की पकड़ में नहीं आते, किन्तु जब वे भावकर्म कर्मवर्गणाओं से युक्त होकर द्रव्यकर्म के रूप में परिणत होते हैं-बँध जाते हैं, तब वे कर्मवर्गणा के पुद्गल चतुःस्पर्शी होने से अतीन्द्रियज्ञानियों की पकड़ में आ जाते हैं। पापकर्मों के कारण वह अशुद्ध आत्मा भारी हो जाती है और भारी वस्तु सदैव नीचे गिरती है तथा हलकी वस्तु सदैव . ऊपर उठती है। इस अपेक्षा से उपर्युक्त भगवत्कथन का फलितार्थ यह है कि इन १८ पापस्थानों (पापकर्मबन्धक कारणों) से आत्मा भारी होकर नीचे गिरती हैउसका पतन होता है एवं इन पापस्थानों से विरत होने पर आत्मा हलकी होकर ऊपर उठती है, उसका उत्थान होता है। पिछले पृष्ठ का शेष(ख) तए णं सा जयंती समणोवासिया एवं वयासी-कहं णं भंते ! जीवा गुरुयत्तं हव्व मागच्छंति ? जयंती ! पाणाइवाइएणं जाव मिच्छादसणसल्लेणं, एवं खलु जीवा गुरुयत्तं हव्वमागच्छति। एवं जहा पढमसए जाव वीईवयंति। -भगवतीसूत्र, श. १२, उ. २, सू. ४४२ १. देखें-आवश्यकसूत्र में अष्टादश पापस्थान का पाठ, दशाश्रुतस्कन्ध, दशा. ६ २. (क) 'कर्मग्रन्थ, भा. २' (मरुधरकेसरी) से भाव ग्रहण, पृ. ४६५ ।। (ख) देखें-भगवतीसूत्र, श. १२, उ. ५, सू. ४५० में अठारह पापस्थानों के लिए चतुःस्पर्शी-निरूपण

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