Book Title: Karm Vignan Part 06
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 510
________________ ४९० कर्मविज्ञान : भाग ६ हैं।' यह कैसा वफादार प्राणी है ? इसके अतिरिक्त दूसरा कोई व्यक्ति साधक की निन्दा करता हो तब भी उसे अपना उपकारी और आत्म-‍ वाला मानना चाहिए। कबीर जी ने ठीक ही कहा है म-शुद्धि के लिए जाग्रत करने " निन्दक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय । बिन पानी साबुन करे आम शुद्धि सुभाय ॥२ इस प्रकार विधेयात्मक दृष्टिकोण से ग्रहण करने पर निन्दक के प्रति गुणानुरागिता दृष्टि रखी जा सकती है। इस प्रकार की गुणानुरागी दृष्टि प्रमोदभावना, आत्मौपम्यभावना या आत्म-भावों पर दृष्टि रखने से भी आ सकती है। गुण-दोषदृष्टि-परायणता की अपेक्षा से चार कोटि के मानव वह संसार में सब प्रकार के जीव होते हैं। गुण-दोषदृष्टि-परायणता की अपेक्षा हम इन्हें चार भागों में विभक्त कर सकते हैं - ( १ ) उत्तम पुरुष वह है, जो किसी के दोष देखे ही नहीं, पर-दोषों का ख्याल करे ही नहीं । कहना-सुनना तो दूर रहा, सबको शुद्ध आत्म-भाव की दृष्टि से देखता है; (२) मध्यम कोटि के व्यक्ति वे हैं, जो किसी के दोष देखने या सुनने में आ भी जाएँ, तो भी उसकी निन्दा नहीं करते, दूसरों के सामने प्रगट भी नहीं करते। इस प्रकार के गम्भीर व्यक्ति मध्यम कोटि के होते हैं; (३) तीसरी कोटि के व्यक्ति किसी के दोष देखकर, मन में रोष लाते हैं, किन्तु दूसरों के सामने न कहकर उसी ( दोषी ) व्यक्ति को कहते हैं; और (४) चौथे प्रकार के व्यक्ति तो दिन-रात दूसरे के दोषों को ढूँढ़ने और संसार के बाजार में ढिंढोरा पीटने में लगे रहते हैं । जो मिले, उसी के सामने वे पर-दोषों को कहते फिरते हैं। ऐसे व्यक्ति अधम निन्दक कोटि के होते हैं। आत्म-निन्दा से आत्म-शुद्धि, पर- निन्दा से पापकर्मवृद्धि पर-निन्दा के कर्मबन्धन से बचने के लिए संवर-साधक को यह सोचना चाहिए कि विश्व में सर्वगुण सम्पन्न तो वीतराग - सर्वज्ञ देव के सिवाय कोई नहीं है । छद्मस्थ अवस्था में व्यक्ति में कोई न कोई दोष या दुर्गुण पाया जाना सम्भव है। कोई कम १. ( क ) परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं । निजहृदि विकसन्तः सन्तिः सन्तः कियन्तः ? (ख) 'आवश्यक निर्युक्ति' से भावांश ग्रहण २. तुलना करें निंदा करे जो हमारी, मित्र हमारा होय । साबु गाँठ का लेयके, मैल हमारा धोय ॥

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