Book Title: Karm Vignan Part 06
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 521
________________ * अविरति से पतन, विरति से उत्थान - २ ४५०१ अथवा आत्म-स्वरूप में रमण करना - आनन्दानुभव करना आत्म- रति है । इससे विपरीत चित्त की व्याकुलता व उद्वेगपूर्ण स्थिति अरति है। इसी आशय से 'आचारांसूत्र' में कहा गया है - " अरति से मुक्त होने वाला मेधावी साधक क्षणभर में अर्थात् बहुत ही शीघ्र विषय / तृष्णा / कामना के बन्धन से मुक्त हो जाता है ।" " मनरूपी पक्षी को समाधिरूपी पिंजरे में बंद रखो मनुष्य का मन पक्षी के समान है। पक्षी जैसे दो पंखों से उड़ता है, उसी तरह मनरूपी पक्षी भी रति और अरतिरूपी दो पंखों से उड़ता है। वह कभी रति मेंसुखानुभूति में और कभी अरति में - दुःखानुभूति में उड़ता रहता है। इसकी उड़ान निरन्तर चालू • है। अतः ज्ञानी महापुरुष कहते हैं कि इसे उड़ने से रोकने के लिए शरीररूपी पींजरा काम नहीं आएगा। इस पींजरे से तो यह भाग जाता है। अतः इसे समाधिरूपी पींजरे में बंद करके रखो, तभी यह स्थिर रह सकेगा । २ मन को समाधि में स्थिर करने के लिए ध्यानरूपी वृक्ष पर आरूढ़ करो मन को कुछ न कुछ काम चाहिए; इसलिए रति का उदात्तीकरण करते हुए • कहा कि मन आत्मा में रति करे, यही समाधि है अथवा रति- अरति की वृत्ति को अत्यन्त मंद करे या शुभ में प्रवृत्त रहे, यही उत्तम विकल्प है। बाह्य विषयों में रति-अरति दोनों ही अशुभ चिन्तनकारक हैं। रति की चिन्ता प्रिय - इष्ट- अनुकूल पदार्थ की प्राप्ति के विषय में है, जबकि अरति की चिन्ता अनिष्ट - अप्रिय - प्रतिकूल पदार्थों की निवृत्तिविषयक है । दोनों वस्तुतः एक ही आर्त्तध्यान वृक्ष की दो शाखाएँ हैं। इनसे निवृत्ति के लिए धर्मध्यान- शुक्लध्यानरूपी वृक्ष पर मन को आरूढ़ करना चाहिए। धर्मध्यानरूपी वृक्ष पर चढ़ा मन अशुभ योग से निवृत्त होकर आत्म - रति और विषयों से अरति के साथ शुभ योग में प्रवृत्त होगा तथा शुक्लध्यानारूढ़ मन आत्मा में, आत्म-स्वरूप में, आत्म-गुणों में तथा आत्म- ध्यान में ही रति करेगा, पर-भावों और विभावों से उसकी अरति (निवृत्ति) होगी। यह रति-अरति पापस्थान १. (क) का अरती, के आणंदे ? एत्थं पि अग्गहं चरे । - आचारांगसूत्र, श्रु. .(ख) अरतिं आउट्टे से मेधावी खसि मुक्के । १, अ. ३, उ. २, सू. १२४ की व्याख्या ( आ. प्र. स., ब्यावर ), पृ. १०६-१०७ - वही, आ. प्र. स., ब्यावर, श्रु. ८, अ. २, उ. २, पृ. ४५-४६ २. देखें - महामहोपाध्याय श्री यशोविजय जी म. रचित सज्झाय मेंचित्त अरति-रति पांखशुंजी, उडे पंखी रे नित्त । पिंजर शुद्ध समाधि में जी, रुंध्यो रहे ते मित्त ॥

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