Book Title: Karm Vignan Part 06
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 527
________________ ॐ अविरति से पतन, विरति से उत्थान-२ ॐ ५०७ ॐ मिथ्यादर्शन है। अर्थात् किसी भी वस्तु या व्यक्ति का जो सही स्वरूप है, उसे उस स्वरूप में न मानना, न जानना, न देखना, न ही तदनुरूप व्यवहार या प्रवृत्ति करना मिथ्यात्व या मिथ्यादर्शन है। संक्षेप में, पदार्थ वास्तव में जैसा है, उसे उससे विपरीत मानना-जानना मिथ्यात्व है। जैसे-अँधेरे में पड़ी हुई रस्सी को साँप मान लेना, अँधेरे में दूर से लूंठ को देखकर सोचना-यह टँठ है या आदमी? सीप को चाँदी की तरह चमकती देखकर यह चाँदी ही है, ऐसी विपरीत धारणा बना लेना। इस प्रकार विपर्यय, संशय और अनध्यवसाय से युक्त ज्ञान को मिथ्याज्ञानमिथ्यादर्शन कहा जाता है। मिथ्यादर्शन को शल्य क्यों कहा गया ? - इसे शल्य इसलिए कहा गया है कि यह तीखे काँटे की तरह एक ही जिंदगी नहीं, कई जिंदगियों तक चुभता रहता है, दुःख देता रहता है। एक तरफ ढेर शास्त्रों का ज्ञान हो, भौतिकज्ञान हो, आचरण भी कठोर कष्टों से भरा हो, सहिष्णुता भी प्रबल हो, बाह्य तप भी उत्कृष्ट हो, परन्तु दृष्टि, बुद्धि या ज्ञान सम्यक् न हो-सम्यग्दर्शन या सम्यक्त्व न हो तो वह ज्ञान मिथ्याज्ञान है, वह चारित्र सम्यक्चारित्र नहीं है, वह तप भी सम्यक्तप नहीं, वह सकामनिर्जरा (अंशतः कर्मक्षय) का कारण नहीं, वह कर्ममुक्ति का कारण नहीं, कर्मबन्ध का कारण होकर संसार परिभ्रमण कराने वाला बनता है। मिथ्यादर्शन में शेष १७ ही ___पापस्थानों का समावेश हो जाता है - इसीलिए उपाध्याय यशोविजय जी ने कहा कि तराजू के एक पलड़े में १७ पापों को रखो और दूसरे पलड़े में एकमात्र अठारहवें पाप को रखो। दोनों को तोला जाए तो १८वें पाप का पलड़ा भारी होगा। उसका वजन १७ पापों से भी ज्यादा बढ़ा हुआ. होगा। क्योंकि १८वाँ मिथ्यादर्शन का पाप ऐसा खतरनाक है कि उसमें १७ ही पापस्थानों का समावेश हो जाता है। यह समस्त पापों का जनक है। इसमें आत्म-दृष्टि का दीप बुझ जाता है और पर-दृष्टि की अपेक्षा से ही समस्त पदार्थों को जाना-माना जाता है। इसलिए मिथ्यादर्शन को समस्त पापों का जन्मदाता कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं। १. संशय-विपर्ययानध्यवसाय युक्तं ज्ञानं मिथ्याज्ञानम्। २. अठारहुँ जे पापर्नुस्थानक, ते मिथ्यात्व परिहरिये जी। सत्तरथी पण ते एक भारी, होय, तुलाए धरीए जी॥

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